Bhagavad Gita (Chapter 2) Hindi Summary
By- Sage Vyasa
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अध्याय 2: ज्ञान योग या सांख्य योग
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अध्याय 2: ज्ञान योग या सांख्य योगश्लोक 1:
वासुदेव श्रीकृष्ण कहते हैं– “हे अर्जुन ! युद्ध की इस विषम स्थिति में तू कैसे अज्ञान और मोह में घिर गया? ये ज्ञानी और महान पुरुषों का आचरण नहीं हैं. इसलिए हे पार्थ! अपने मन की कमज़ोरी का त्याग कर, अपने कर्म का नहीं. जो इंसान अपने कर्म से मुहं मोड़ लेता है उसे केवल अपमान का सामना करना पड़ता है. तू जिन चीज़ों के लिए शोक कर रहा है वो इसके योग्य है ही नहीं.ज्ञानी जन जिंदा या मरे हुए लोगों के लिए शोक नहीं करते. ये जान ले कि ऐसा कोई काल नहीं था जब मैं नहीं था, तू नहीं था या यहाँ मौजूद लोग नहीं थे और ना ही कभी ऐसा समय आएगा जब हम सभी नहीं रहेंगे. बदलाव तो इस प्रकृति का नियम है. पंच तत्वों से बना ये शरीर भी एक समान नहीं रहता, समय के साथ इसमें बदलाव होता रहता है और मृत्यु के बाद एक नए शरीर का जन्म होता है. इसलिए धीर पुरुष ना शोक करते हैं और ना ही इससे मोहित होते हैं. ”
अर्थ :
इस श्लोक में अर्जुन के माध्यम से इंसान के मन की स्थिति को दिखाया गया है कि जब उसका सामना किसी चुनौती या मुश्किल परिस्थिति से होता है तो वो किस तरह घबरा जाता है, किस तरह मोह में आ जाता है और अपना कर्म करने के बजाय उससे भागने की कोशिश करता है. जब तक इंसान सच से अनजान रहेगा तब तक उसके मन में तरह-तरह के डर और संशय जन्म लेते रहेंगे. सच को जानकर उसे स्वीकार करने के बाद ना ही उसके मन में किसी तरह का भय शेष रहेगा और ना ही वो किसी मोह में अटका रहेगा.
यहाँ ज्ञानी का मतलब है इस शरीर, आत्मा और भगवान् के तत्व को समझना. ज्ञानी मतलब समझदार। यहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन से सवाल कर रहे हैं कि तू किसका शोक कर रहा है उसका जिसका एक दिन मिट जाना तय है या उसका जिसका नाश कभी हो ही नहीं सकता? अगर नाश होना तय है तो दुःख कैसा और जिसका नाश हो ही नहीं सकता उसके लिए दुःख कैसा. इस सृष्टि में कोई भी चीज़ शोक करने लायक है ही नहीं क्योंकि हर चीज़ का अस्तित्व बस कुछ समय के लिए ही है.
यहाँ मनुष्य को ये बताया गया है कि असल में हम शरीर, विचार, इच्छाएं ये सब नहीं हैं. यहाँ उस पराभौतिक तत्व का ज़िक्र किया गया है जिसका कभी नाश नहीं हो सकता यानी आत्मा. हम तो वो हैं जिसने पांच तत्वों से बने इस शरीर को धारण किया है, उसे ही आत्मा कहते हैं. ये आत्मा पूरी सृष्टि में समाई हुई है या ये कहा जा सकता है कि उसने अपने अंदर पूरे ब्रह्मांड को समेट रखा है. कहने का मतलब यह है कि आत्मा में ब्रह्मांड नहीं बल्कि ब्रह्मांड और इस पूरे संसार का ज्ञान समाया हुआ रहता है क्योंकि आत्मा में ही मन-बुद्धि और संस्कार हैं और यह शरीर इतनी विशाल पाँच तत्वों से बनी प्रकृति का ही तो प्रतीक है।
इंसान का स्वभाव होता है कि जो चीज़, जो लोग उससे जुड़ जाते हैं उसे उनसे लगाव हो जाता है और वो उसे पकड़ कर रख लेता है , इस लगाव की highest degree को ही मोह कहा गया है. जब उसे लगता है कि उससे कोई अपना छूट जाएगा तब वो परेशान हो जाता है, दुखी हो जाता है और ये हर समस्या का कारण बनता है. जब इंसान का मन और बुद्धि लगाव में कहीं अटक जाए, सीमित हो जाए तो उसे मोह कहा जाता है.
इंसान को दुःख तब होता है जब वो अपनी इन्द्रियों द्वारा नज़र आने वाली चीज़ों के मिट जाने के बारे में सोचता है. इंसान को बाहरी चीज़ों का आभास उसकी इन्द्रियों जैसे त्वचा, आँख, नाक, जीभ, कान के माध्यम से होता है. जब ये इन्द्रीयाँ बाहरी चीज़ों के संपर्क में आती हैं तो अलग-अलग भावनाओं को जन्म देती हैं जैसे सुख, दुःख, सर्दी गर्मी जो पल पल बदलते रहते हैं इसलिए इंसान को हर भावना को धीरज के साथ सहन करना चाहिए. इस तरह उसके मन की स्थिति में एक संतुलन का विकास होने लगता है. ये भावनाएं सिर्फ़ हमारे मन की प्रतिक्रिया (response) हैं.
इनके गुलाम बनने के बजाय इन्हें observe करना सीखें. रियेक्ट नहीं बल्कि इसके बारे में सोचना(reflect) सीखें. जितना ज़्यादा इंसान ख़ुद को body conscious वाले “मैं” और “मेरा” शब्द के साथ जोड़ेगा उतना ही वह जीवन में समस्याओं और भ्रमों का सामना करेगा। जबकि यह सत्य ज्ञान कि “मैं आत्मा” “मेरा शरीर” समझकर जिस पल वह अपने सोचने का दायरा और नज़रिए को बढ़ाता है और हकीकत को समझकर खुद को ( आत्मा ) पहचानता है उसके भ्रम गायब होने लगते हैं.
इंसान का शरीर अग्नि, जल, आकाश, वायु और पृथ्वी इन पांच तत्वों से मिलकर बना है. जब ये पाँचों तत्व मिलकर एक साथ आ जाते हैं तब एक नए शरीर का निर्माण होता है. समय के साथ शरीर में बदलाव होता है ,पहले बचपन, फ़िर जवानी आती है और बुढ़ापे के साथ ये शरीर ढलने लगता है. जब शरीर काफ़ी कमज़ोर हो जाता है या रहने लायक नहीं रहता तब मृत्यु की स्थिति आती है. जब ये आत्मा शरीर को छोड़ देती है तो उस इंसान को मृत कहा जाता है. मृत्यु के बाद पाँचों तत्व वापस प्रकृति में अपने अपने मूल तत्व में मिल जाते हैं इसलिए असल में यहाँ ख़त्म तो कुछ भी नहीं हुआ.
प्रकृति से बना हुआ ये शरीर कभी ख़त्म नहीं होता, वो बस बिखर जाता है और फ़िर एक साथ एक नए स्वरुप में वापस आ जाता है. आत्मा कभी मरती नहीं, उसका अस्तित्व सदैव था और सदैव बना रहेगा. जो भी बदलाव होता है वो प्रकृति के स्तर पर होता है यानी जो भी इस प्रकृति से बना है, उसमें बदलाव होता है. आत्मा के स्तर पर कभी कुछ भी नहीं बदलता. आत्मा तो प्रकृति से परे है इसलिए वो अविनाशी है.
तो जिसका नाश ही नहीं हो सकता उसके लिए शोक कैसा ? इस सृष्टि में कभी कुछ भी ख़त्म नहीं होता, बस उसका स्वरुप बदल जाता है.
जब हम सच को जानकार उसे स्वीकार कर लेते हैं तो दुःख करने का कोई कारण ही नहीं रह जाता. हमें दुःख तब होता है जब हम चाहते हैं कि जिसे हम देख रहे हैं वो हमेशा वैसे का वैसा बना रहे लेकिन ये तो नामुमकिन है क्योंकि बदलाव ही प्रकृति की प्रवृत्ति है, वो तो होना ही है. ये आत्मा लगातार अनंत समय से चली आ रही है इसलिए दुःख करने का तो कोई सवाल ही नहीं उठाना चाहिए.
जो चीज़ प्रकृति से बनती है वो काल और कालचक्र से बंध जाती है, उसका एक साकार रूप होता है इसलिए एक ना एक दिन उसका नाश होना भी निश्चित होता है. लेकिन जो निराकार है वो काल से परे हो जाता है इसलिए आत्मा का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता.
हमारा शरीर, हमारी इच्छाएँ लगातार हर दिन बदलती रहती हैं इसलिए बदलाव तो हर पल हो रहा है तो दुःख किस बात का. जब इस बदलाव तो तुम रोक नहीं सकते, बदल नहीं सकते तो दुःख क्यों करते हो. इस सच को समझकर इस नियम को स्वीकार करो.
मोह का त्याग करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि जब मनुष्य मोह में आ जाता है तो उसके सोचने की शक्ति ख़त्म हो जाती है और वो या तो फ़ैसला लेने की क्षमता खो देता है या गलत क़दम उठाता है जिसका परिणाम बुरा ही होता है.
इस श्लोक में ये भी समझाया गया है कि इंसान कमज़ोर नहीं होता, उसका डर और मोह भ्रम पैदा करता है, confusion create करता है, जिस वजह से उसका मन कमज़ोर पड़ जाता है. ज्ञानी और महान लोग कभी अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटते और एक क्षत्रीय होने के नाते अर्जुन को भी अपने शस्त्र संभाल कर युद्ध लड़ना ही होगा. यहाँ श्रीकृष्ण समझाना चाहते हैं कि इंसान को अपना समय और मेहनत उन चीज़ों पर बर्बाद नहीं करनी चाहिए जो इस दुनिया तक ही सीमित रहती हैं.
इसके बजाय हमें उन चीज़ों पर ध्यान देना चाहिए जो आत्मा के लिए ज़रूरी है, इस शरीर के लिए नहीं. अगर इस शरीर का जन्म हुआ है तो इसका एक दिन मिट जाना भी तय है इसलिए किसी चीज़ से मोह मत करो बस अपना कर्म पूरी निष्ठा और इमानदारी से करते जाओ. अगर जीवन के संघर्ष से भागोगे तो कायर के अलावा कुछ नहीं कहलाओगे और जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ पाओगे. इस तरह यहाँ साफ़ बताया गया है कि प्रेम ज़रूरी है और मोह त्याग देने यानि छोड़ने योग्य है। मोह के कारण ही परिवारों में कलह और संसार में भ्रष्ट आचरण फैलता है।
श्लोक 2 :
श्रीकृष्ण कहते हैं, “हे कुंती पुत्र ! सुख दुःख कभी सदा के लिए नहीं रहते. मौसम की तरह ये भी बदलते रहते हैं इसलिए इससे बेचैन मत हो क्योंकि जो सुख दुःख को समान समझता है वो किसी भी परिस्थिति में व्याकुल नहीं होता, उसके मन में हलचल नहीं होती और असल में वही मुक्ति पाने के योग्य होता है. यही बात भावनाओं पर भी लागू होती है. सत और असत्य के फ़र्क को समझना ही हमें सही फ़ैसले लेने में मदद करता है. सत का कभी नाश नहीं हो सकता और असत कभी हमेशा के लिए टिका नहीं रह सकता. ये शरीर असत्य है, इसका विनाश होना तो तय है, तू उसकी चिंता कर जो अनंत और शाश्वत है, सत्य है, जिसे आत्मा कहते हैं, जो इस शरीर के अंदर वास करती है. इसलिए तू निर्भय होकर बस अपना कर्म कर”.अर्थ :
यहाँ ये समझाया गया है कि जीवन में सुख दुःख का आना जाना लगातार बना रहता है. कभी सुख आता है, कभी दुःख आता है, ये एक अंतहीन सिलसिला है और अगर इंसान इसी में फँसा रहेगा तो उसका जीवन यूहीं निकल जाएगा. असल में परिस्थिति सुख और दुःख पैदा नहीं करते बल्कि हम उसे किस नज़रिए से देखते हैं वो सुख या दुःख का कारण बनता है. सुख दुःख हमारी इन्द्रियों के कारण पैदा होती हैं. जो चीज़ हमें अच्छी लगती है, हमारे अनुसार होती है हम उसे सुख का नाम दे देते हैं और जो चीज़ हमें पसंद ना आए या जिसके लिए संघर्ष करना पड़े हम उसे दुःख का नाम दे देते हैं.
ये सिर्फ़ हमारी इन्द्रियों का खेल है और अक्सर हम इन इन्द्रियों की पसंद नापसंद में फंस कर अटक जाते हैं. अगर हम सुख से मिलने वाली ख़ुशी और अहंकार या दुःख से मिलने वाली तकलीफ़ में ही फंसें रहेंगे तो जीवन में आगे नहीं बढ़ पाएँगे. इसलिए सुख और दुःख दोनों को स्वीकार करो. चाहे सुख हो या दुःख मन की स्थिति को हमेशा समान बनाए रखो, ना ख़ुद में अहंकार आने दो ना दुःख से मन को भारी और निराश होने दो.
परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है इसे स्वीकार करो क्योंकि हम ख़ुद को अपनी इच्छाओं, डर और विकारों से तभी मुक्त कर सकते हैं जब हम सुख और दुःख दोनों को समान समझने लगें. जिस मनुष्य को कोई परिस्थिति विचलित नहीं कर सकती वही जीवन के सफ़र में सही फ़ैसले ले सकता है. सुख दुःख को समान समझने के बाद ही हम में ठहराव आता है, हमारा मन शांत होता है और एक शांत मन ही इंसान को सही रास्ता दिखा सकता है.
यहाँ सत और असत के बीच का फ़र्क भी समझाया गया है. जिस चीज़ में भी बदलाव आ जाए उसे असत कहा गया है यानी प्रकृति से बनी हर चीज़ जिसे हम देख सकते हैं, छू सकते हैं, या जिसका कोई आकार है वो सब एक ना एक दिन मिट जाएँगे. हमारे ख़याल, इच्छाएं, ये शरीर इन सब में भी लगातार बदलाव होते रहते हैं. यही सत्य ज्ञान है। ज्ञान को सत्य भी कहा गया है और आत्मा को भी सत्य कहा गया है। जब आत्मा को इस सत्य का परिचय होता है तब वह अपने सच्चे स्वरूप को अनुभव यानि experience करती है और शरीर और इंद्रियों की गुलामी ( बंधन ) से ख़ुद को मुक्त करती है।
हम बंधन में तब आते हैं, बेचैन तब होते हैं जब हम इन नाश होने वाली चीज़ों से लगाव करने लगते हैं. मुक्ति का असली मतलब है सत को जानना यानी आत्मा के सच्चे स्वरुप को जानना. वो सत जिसका अस्तित्व है, जो निराकार है, जो सब कुछ अपने में समेटे हुए है. उस भाव में टिक जाना कि हम आत्मा हैं और इसका कभी नाश नहीं हो सकता, इसे ही आत्म अनुभूति या self realization कहते हैं.
इस अनुभूति के बिना इंसान खुद को शरीर यानि मर जाने वाला ही समझता रहता है और सब कुछ इस शरीर के लिए ही करता रहता है। मौत से डरता है, डर में जीता है। लगाव और मोह में फँसा रहता है, इसी शरीर के लिए चीजें,रुपया-पैसा इकठ्ठा करने के लोभ -लालच में जकड़ा रहता है और शरीर को मिले रंग-रूप, पद – position के चलते या तो अभिमान या हीन भावना में जीता रहता है। जबकि सच यह है कि इंसान हाड़-माँस का पुतला शरीर नहीं है बल्कि आत्मा है। शरीर तो कर्म करने का एक साधन है। जैसे एक रोबोट बिना सॉफ्टवेयर के नहीं चल सकता वैसे ही यह शरीर बिना एनर्जी यानि आत्मा के नहीं चल सकता।
श्लोक 3 :
“हे कुंती नंदन, ये आत्मा ना किसी को मारती है और ना ही कोई इसे मार सकता है. हाँ, इस शरीर को मारा जा सकता है लेकिन आत्मा को कभी नहीं. आत्मा तो अजर है , अमर है. ना ये किसी काल में जन्म लेती है, ना मरती है. इसे नष्ट नहीं किया जा सकता. जैसे मनुष्य पुराने कपड़े छोड़कर नए कपड़ा धारण करता है वैसे ही आत्मा नया शरीर धारण करती है. आत्मा को ना अस्त्र-शस्त्र काट सकते हैं, ना अग्नि जला सकती है, ना पानी गला सकती है और ना ही वायु सुखा सकती है. आत्मा को देखा नहीं जा सकता, इसमें कभी बदलाव नहीं होता, आत्मा तो परम शुद्ध है, इसमें कोई विकार भी नहीं होता.”अर्थ:
यहाँ आत्मा के स्वरुप के बारे में बताया गया है. आत्मा काल से परे है क्योंकि इसका निर्माण प्रकृति से नहीं हुआ है. इसलिए इसे नष्ट करना भी संभव नहीं है. नष्ट वो होते हैं जो इस प्रकृति से बनते हैं. कोई चीज़ नष्ट तब होती है जब उसका कोई साकार रूप होता है, जिसे हम इन इन्द्रियों द्वारा देख सकते हैं लेकिन आत्मा को देखा ही नहीं जा सकता. जो साकार ही नहीं है उसे कोई कैसे मारेगा. आत्मा के माध्यम से ही ये शरीर, इन्द्रीयाँ सब चल रहे हैं. जब आत्मा शरीर को छोड़ देती है वो मृत्यु की अवस्था कहलाती है. ये आत्मा हर एक जीव में मौजूद है इसलिए हम सभी एक तरह से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.
मनुष्य की सबसे बड़ी कमज़ोरी है मौत का डर और ये डर उसे आगे बढ़ने नहीं देता. मौत से डरने की नहीं बल्कि उसे समझने की ज़रुरत है क्योंकि मौत शरीर को आती है और यह एक अटल सच है, वो तो होना ही है. जब सेल्फ realization के द्वारा खुद को आत्मा मान लेते हैं तो समझ जाते हैं कि मैं यानि आत्मा अजर-अमर-अविनाशी हूँ और यह शरीर नाशवान है। इसका नष्ट होना तो तय है।
असल में मर जाने का असली मतलब होता है बदलाव की प्रक्रिया. मनुष्य इस बदलाव से इसलिए डरता है, दुखी होता है क्योंकि वो ख़ुद को शरीर मानने की भूल करता है. इसलिए ये ज़रूरी है कि मौत से घबराओ मत, इस कभी ना टलने वाले सच को स्वीकार करो क्योंकि सच को स्वीकार करने से मौत का डर इंसान के मन से निकल जाता है. अगर इंसान के मन से ये डर निकल जाए तो वो निर्भय हो जाएगा और बेख़ौफ़ होकर अपना कर्म कर पाएगा.
यहाँ बेखौफ़ होने का मतलब है कि मरने के डर से कई बार हम अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हट जाते हैं और डर इंसान की मानसिक और बौद्धिक शक्तियों को खत्म कर देता है यानि सोचने-समझने की शक्ति भी खत्म कर देता है जिस कारण उसके कर्म बिगड़ने लगते हैं और फिर इंसान को कर्म के अनुसार फल भी सज़ा के रूप में भुगतने पड़ते हैं। यह ज्ञान कर्मों की ही समझ देता है। एक डरा हुआ मन कभी भी सही कर्म और फ़ैसला नहीं कर सकता इसीलिए सबसे पहले भगवान हमें मौत के डर से मुक्त करते हैं और निर्भय यानि बेखौफ़ बनाते हैं।
श्लोक 4:
श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, “अगर तू अपने कर्म से पीछे हट गया तो तुझे अपमान के सिवा कुछ नहीं मिलेगा. अगर तू ये राज्य या विजय पाना नहीं चाहता तो हार-जीत, सुख-दुःख को समान समझकर युद्ध कर, इस तरह तू पाप का भागी नहीं बनेगा. अब तक तू ज्ञान योग के बारे में सुन रहा था, अब कर्म योग के बारे में सुन.”अर्थ :
अर्जुन सोच रहे थे कि अपने लोगों की हत्या करके वह पाप के भागीदार बनेंगे तो कृष्ण उन्हें समझाते हैं कि किसी कर्म या काम के बदले में कुछ पाने की इच्छा करना ही इंसान को बंधन में बाँधता है; लेकिन जब कोई कर्म बिना किसी इच्छा के किया जाए तो वह आत्मा को आज़ादी की ओर ले जाता है।
सांख्य या ज्ञान योग इस ब्रह्मांड के अटल सच के बारे में ज्ञान देती है यानी इंसान को समझाती है कि वो असल में एक पवित्र आत्मा है, पंच तत्वों से बना शरीर नहीं। यह हकीकत और भ्रम के बीच का फ़र्क सिखाती है. सच का ज्ञान अज्ञानता को/ नासमझी को नष्ट कर देता है. अज्ञानता ही इस संसार में जन्म और मृत्यु का कारण बनता है और सारे दु:ख और भ्रम इसके साथ जुड़े हुए हैं ।
योग या कर्मयोग कर्म का मार्ग है। इस रास्ते पर चलने वाले किसी कर्म के बदले कुछ पाने की इच्छा नहीं करते। जब इंसान ख़ुद को भगवान् द्वारा चुना गया एक ज़रिया मानकर कर्म करता है तो वो भी कर्म योग ही कहा जाता है.
इच्छा और लगाव इंसान के मन में छोटे-छोटे निशान या छाप (impression) पैदा करते हैं जो भविष्य के कर्म या एक्शन का बीज बनते हैं। फल की इच्छा किए बिना किए गए कर्म नए कर्म का निर्माण नहीं करते बल्कि इंसान को आत्म-प्राप्ति (self realization) की ओर ले जाते हैं। यही कर्म योग का रहस्य है।
तो आखिर कर्म का बंधन है क्या? कोई भी कर्म जो किसी मकसद के साथ किया जाए या उसके बदले कुछ पाने की चाहत हो वो सभी कर्म के बंधन में बाँधते हैं।
कर्म योग का मतलब है जहां हर कर्म बिना इच्छा या बिना बदले में कुछ पाने की चाहत के किया जाए. इच्छा इंसान को अच्छा नहीं बनने देती इसीलिए खुद की सही पहचान कर यानि खुद को आत्मा, परमात्मा की रचना मानकर मन द्वारा यह विचार करना होता है कि मुझ आत्मा के पास वह सुख-शांति-शक्ति पहले से ही है।
मुझे चाहिए नहीं बल्कि मेरे पास यह है ही और यह विचार मन की शक्ति के ज़रिए वह साधन या आवशयक वस्तु या फल आपको दिलाता है। इसे Ask & Its Given concept कहा गया है। इच्छा करना लालच और लगाव को जन्म देता है । कर्मों के पहल की इच्छा करना ही भ्रष्ट आचरण की शुरुआत है क्योंकि लालच और लगाव की कोई सीमा नहीं होती और यही ग़लत कर्म करने के लिए इंसान को inspire करता है जिसके कारण डर और हिंसा फैलती चली जाती है।
इस कर्म योग में, आत्म अनुभूति (self realization) की सबसे ऊँची स्थिति में पहुंचना भी संभव है क्योंकि इंसान एकाग्र (concentrated) मन के साथ काम करता है। जो लोग कुछ पाने के लिए अंतहीन इच्छाओं के साथ कर्म करते हैं, उनका व्यक्तित्व टूटने और बिखरने लगता है। बिखरे हुए मन के साथ वे अपने काम में पूरा फोकस नहीं कर पाते इसलिए उनकी कोशिश अक्सर असफलता में बदल जाती है।
श्लोक 5:
श्रीकृष्ण कहते हैं, “हे अर्जुन इस प्रकृति में तीन गुण हैं – सत्व, रजस और तमस जिनसे तुझे ऊपर उठना है. तेरा अधिकार सिर्फ कर्म करने में है, उसके फल में नहीं इसलिए तू फल पाने की इच्छा से कर्म मत कर. इस तरह तू हर बंधन से मुक्त हो जाएगा”अर्थ :
श्रीकृष्ण यहाँ मनुष्य को इन तीन गुणों से ऊपर उठने के लिए कह रहे हैं. प्रकृति तीन गुणों से बनी है यानी, सत्त्व – पवित्रता(purity), प्रकाश(light), सद्भाव (harmony); रजस – जुनून(passion), बेचैनी(restlessness), गति (motion); और तमस – जड़ता(inertia), और अंधकार(darkness)। ये तीनों गुण सभी जीवों में अलग-अलग मात्रा (डिग्री) में रहते हैं। मन और बुद्धि इन गुणों से बनी हुई है. इनसे ऊपर उठने का मतलब है मन और बुद्धि से परे जाकर अपने असली स्वरुप को पहचानना। सत्व में आत्मा के सातों गुण highest डिग्री में रहते हैं – ज्ञान, शांति, सुख, प्रेम, पवित्रता, आनंद और पवित्रता। इन सात गुणों का कम होना आत्मा को रजो और रजो प्रधान अवस्था में लाता है और इनका बहुत कम होना ही आत्मा को तमो और तमो प्रधान अवस्था में लाता है। रजो में आत्मा फिर भी अपने आत्मिक गुणों के सहारे अच्छे कर्म करती है। तमो यानि अंधकार यानी ज्ञान ( समझ ) की कमी के कारण कर्म-भ्रष्ट हो जाते हैं और सभी को दुख देने वाले कर्म करते हैं ।
श्रीकृष्ण आगे समझाते हैं कि इंसान को भविष्य के बारे में काल्पनिक डर और चिंता में अपना आज बर्बाद नहीं करना चाहिए बल्कि आज पूरी मेहनत और लगन से कर्म कर अपने जीवन के हर पल को फलदायी और सार्थक बनाना चाहिए ।
यह श्लोक कर्म योगि को तीन बातें सिखाता है:
1. इंसान का सिर्फ़ अपने कर्म पर अधिकार है
2. कर्म के फल पर उसका कोई कंट्रोल नहीं है
3. इंसान को कोई भी कर्म कुछ पाने की इच्छा से नहीं करना चाहिए क्योंकि ये उसे बंधन में बाँध देता है और नए कर्म को जन्म देता है.
जब इंसान किसी कर्म को कर्ता के भाव से ना करते हुए, ख़ुद को एक माध्यम समझकर कोई कर्म करता है और उसके बदले में कुछ पाने की इच्छा नहीं रखता, उस कर्म को श्रेष्ठ कर्म कहा गया है क्योंकि वो उसे हर तरह के बंधन से मुक्त कर देता है.
बिना किसी इच्छा से किए गए कर्म करने से इंसान को शांति मिलती है और उसकी वासना कम होने लगती है। उम्मीदों के बंधन से मुक्त होकर उसके लिए मोक्ष के दरवाज़े खुल जाते हैं । इस तरह कर्म करने से मनुष्य जन्म-जन्मान्तर के जन्म और मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है.
योग का मतलब है मन की वो ख़ास स्थिति जिसमें जीवन के सभी उतार-चढ़ाव में मन समान बना रहता है।
ऐसे कर्म करने के दौरान वो ख़ुद को भूल जाता है और सफलता या विफलता की चिंता या परवाह नहीं करता। इसी संतुलन को योग कहा गया है । ऐसी अवस्था में दुनिया में रहते हुए भी वह खुद को दुनिया के माया जाल से अलग रख पाता है और पुण्य और पाप से अछूता रहता है। पुण्य और पाप इंसान को तब लगता है जब वह ख़ुद को शरीर समझता है। अगर वह ख़ुद को इस पहचान से अलग कर दे तो पुण्य और पाप का उस पर कोई प्रभाव नहीं होगा और इस तरह जो कर्म पहले हमें बंधन में बाँध रहे थे वही अब मुक्ति का साधन बन जाते हैं.
कहने का मतलब यह है कि एक बार खुद को आत्मा समझने के बाद आत्मा से पाप-कर्म होना बंद हो जाते हैं क्योंकि मैं भी आत्मा – तू भी आत्मा यानि एक ही परमात्मा की रचना। तब एक आत्मा दूसरी आत्मा को दुख कैसे दे सकती है इसीलिए वह इच्छाएँ ना रखकर अच्छे कर्म करने लगती है और इस तरह पुण्य कमाने लगती है। आत्मा को ही पुण्य-आत्मा या पाप आत्मा कहा जाता है, कभी भी पाप-शरीर या पुण्य शरीर नहीं कहा जाता। आत्मा जब खुद को एक निमित्त मानकर कर्म करती है तब ही वह कर्म बंधन से मुक्त होती है। “मैं कर रहा हूँ” इस भाव से किया गया कर्म आत्मा को कर्म बंधन में बांधता ही है।
श्लोक 6:
“हे पार्थ! जब मनुष्य मन की सभी इच्छाओं और विकारों को पूरी तरह से त्याग देता है तो उसे ख़ुद को खोजने में यानी आत्म खोज में संतुष्टि मिल जाती है, उस स्तिथि को स्थित प्रज्ञ कहते हैं. वो जिसका मन विपरीत स्थिति में हिलता नहीं, वो जो सुखों के पीछे भागता नहीं, जो आसक्ति, डर और क्रोध से मुक्त है, ऐसे मनुष्य को स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है.”अर्थ :
इस दुनिया में दुःख और प्रतिकूल परिस्थितियों का कोई अंत नहीं है। जो मनुष्य सुख और दुःख की परिस्थिति में समानता बनाए रखे उसे स्थिर बुद्धि कहा गया है। जो इंसान दुःख में या ख़ुशी में अविचलित रहता है, अनासक्त, निडर और बिना क्रोध के बना रहता है उसे स्थिर बुद्धि कहा गया है।
स्थितप्रज्ञ दो शब्द स्थित और प्रज्ञा से जुड़कर बना है।
प्रज्ञा का मतलब है समझदार, बुद्धिमान, सच को जानने वाला ।
स्थित का मतलब है जो दृढ़ता से खड़ा है.
इन दोनों शब्दों को मिलाकर अर्थ होता है - वह व्यक्ति जो अपने वचन या समझौते के प्रति दृढ़ता के साथ खड़ा रहे या वफादार हो।
एक ऐसा आदमी जो निर्णय में दृढ़ है, जो किसी भी भ्रम से मुक्त है।
एक आदमी, जो दृढ़ निश्चयी है, स्थिर है।
हमारी इन्द्रियों पर बाहरी दुनिया की चीज़ों का असर होता है जो हमारे मन तक जाती हैं. मन का स्वभाव होता है ऐसी सांसारिक चीज़ों के पीछे भागना. अपने मन को इन इन्द्रियों के जाल से बचाना और ख़ुद पर फोकस करना ही हमें जीवन की बेचैन करने वाली परिस्थितियों से आज़ाद कर सकता है.
अगर मन को इन दो पहलुओं में ट्रेन किया जाए - (ए) आत्म-नियंत्रण (सेल्फ कंट्रोल) में रहना और (बी) किसी भी वस्तु के साथ न तो लगाव करना और न ही उसके प्रति घृणा रखना, इस तरह उनके प्रति खिंचाव और आकर्षण को कंट्रोल में रखा जा सकता है। मन की यह स्थिति, जिसमें किसी चीज़ या भावना के कारण कम हलचल हो उसे शांति या `प्रसाद 'कहा जाता है।
आसक्ति या अटैचमेंट या लगाव वह स्थिति है जब कोई इंसान खुद को एक माध्यम के रूप में नहीं बल्कि कर्म को करने वाले के रूप में मानता है यानी ख़ुद को कर्ता मान लेता है और तब उसमें उस कर्म के फल को पाने की इच्छा जागने लगती है जो उसे बंधन में बाँधने का कारण बनती है.
जब कोई इंसान किसी चीज़ के बारे में बार-बार सोचता है, तो उसके लिए लगाव पैदा होता है; जिससे इच्छा का जन्म होता है; अगर वो इच्छा पूरी ना हो तो उससे क्रोध पैदा होता है, क्रोध से भ्रम होता है, भ्रम से दिमाग पर असर होता है जिससे बुद्धि का नाश होने लगता है जो इंसान को उसकी बर्बादी की ओर ले जाती है.
लेकिन आत्म-नियंत्रण इंसान को संयम के साथ हर खिंचाव और आकर्षण से मुक्त कर शांति देता है।
जो मन लगातार संसार की चीज़ों के बारे में सोचता है और उसी की खोज में आगे बढ़ता है, उसके सही गलत को समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है।
जिस तरह महासागर उसमें मिलने वाली छोटी-छोटी धाराओं से प्रभावित नहीं होता उसी तरह अपने असली स्वरुप को पहचान लेने वाला इंसान किसी परिस्थिति या सांसारिक खिंचाव द्वारा जन्मी इच्छाओं से परेशान नहीं होता.
जो बाहर ख़ुशी को ढूँढता है उसे कभी शांति नहीं मिल सकती इसलिए अगर शांति अनुभव करना चाहते हो तो अपने अंदर झाँकों और उस परम तत्व के सच को पहचानों.
हर इच्छा का त्याग करना और अपने असली स्वरुप में टिके रहना ब्रह्म की स्थिति है। अगर कोई इस अवस्था को पकड़ लेता है तो वह फिर कभी किसी भ्रम में नहीं पड़ता; वो फ़िर कभी बहक नहीं सकता क्योंकि आत्म भाव में टिक जाना उसे ख़ुशी की सबसे ऊँची अवस्था का अनुभव करा देता है। कारण कि आत्मा खुद को भूली हुई थी और अपनी originality को फ़ील करके आत्मा अपने सातों गुणों “ ज्ञान, सुख, शांति, प्रेम, पवित्रता, आनंद और शक्ति को अनुभव करती है और यही तो जन्म-जन्मतार प्रार्थनाओं में परमात्मा से मांगा था।
महाभारत में पांडवों की जीत आत्म शुद्धि को दिखाती है। इसी तरह, हर रोज़ के कामकाजी जीवन में अगर कोई सही कदम या एक्शन लेना शुरू कर देता है, तो उसकी कोशिशों से अंत में उसे आत्मा और जीवन के अंतिम मकसद का एहसास हो जाता है.
अध्याय 2 का सार:
भगवान कृष्ण ने हमें अर्जुन के माध्यम से आत्मा और शरीर के बीच का अंतर सिखाया। हम शरीर, इच्छाएँ, नहीं बल्कि आत्मा हैं। वो आत्मा जो अजन्मा और अविनाशी है। आत्मा पूरे ब्रह्मांड में समाई हुई है और हर जीव के अंदर वास करती है इसलिए हम सभी एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं।हमने ये भी समझा कि कर्म करते समय हमें उसके रिजल्ट के बारे में सोचकर ज़्यादा परेशान नहीं होना चाहिए बल्कि हमें सफलता या असफलता की चिंता किए बिना अपनी क्षमता (potential) का बेस्ट इस्तेमाल करना चाहिए। इसके साथ-साथ हमें अपनी असफलताओं से सीखना चाहिए और अपनी असफलताओं से निराश या हारे बिना लगातार आगे बढ़ते रहना चाहिए। एक सक्सेसफुल इंसान बनने के लिए, हमें अपनी इच्छाओं को कंट्रोल करने या सीमित करने की भी ज़रुरत है।
"आप जो भी कर रहे हैं, उस में अपना पूरा दिमाग लगाएं। आपका पूरा फोकस अपने गोल पर होना चाहिए।
आप जो भी काम करते हैं, उसे पूरे concentration और मन से करें। यह गीता के कर्मयोग का मुख्य विषय और आपके द्वारा किए गए काम में सफलता पाने का रहस्य भी।
एक सार्थक जीवन जीने का रहस्य है हमेशा एक्टिव बने रहना और अपने निजी मतलब या परिणामों के बारे में सोचे बिना अपना बेस्ट परफॉर्म करना।
रिजल्ट की चिंता किए बिना ईमानदारी से कर्म किए जाने चाहिए। एक्शन के रिजल्ट अच्छे तब होंगे जब हम एक्शन में पूरा ध्यान और एनर्जी डालते हैं और रिजल्ट के बारे में सोचकर ख़ुद को परेचान या बेचैन नहीं होने देते क्योंकि रिजल्ट तो आपके द्वारा एक्शन में लगाई गई एनर्जी पर डिपेंड करेगा।
इसका मतलब यह नहीं है कि हमें रिजल्ट की परवाह नहीं करनी चाहिए लेकिन हमें हर समय सिर्फ़ पॉजिटिव रिजल्ट की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए बल्कि सक्सेस और फेलियर दोनों को स्वीकार करना चाहिए और हार माने बिना अपनी गलतियों से सीखकर दोबारा कोशिश करनी चाहिए. अगर आप लगातार अपनी पढ़ाई के रिजल्ट के बारे में चिंता करते रहेंगे तो आप फेलियर के डर से अपना मन और फोकस नहीं लगा पाएँगे।
हमने ये भी जाना कि हमारे एक्शन पर हमारा पूरा कंट्रोल होता है, लेकिन उसके रिजल्ट पर हमारा कोई कंट्रोल नहीं है।
ख़ुद में सेल्फ़ कंट्रोल का गुण भी जगाना बहुत ज़रूरी है क्योंकि जब हमारी इच्छा पूरी नहीं होती तो हमें गुस्सा आता है और गुस्सा सही क़दम या फ़ैसला लेने में सबसे बड़ी बाधा बनती है इसलिए गुस्से को कंट्रोल करने का सबसे अच्छा तरीका है हमारी इच्छाओं को कंट्रोल करना या सीमित करना।
इस बात को समझें कि हमें बहुत सी चीजें नहीं चाहिए क्योंकि ये इच्छाएँ मन में शुरू होती हैं और इसका कोई अंत नहीं है इसलिए हमें अपने मन पर कंट्रोल करना सीखना होगा। एक स्टूडेंट के रूप में, अपने लिए हाई गोल सेट करें। अपना बेस्ट दें और अपनी पढ़ाई पर फोकस करें। अगर आप बिज़नस करते हैं तो पूरी इमानदारी के साथ व्यापार करें. अगर आप जॉब करते हैं तो कुछ पाने की इच्छा करने से पहले ये भावना रखें कि आप उस कंपनी के लिए क्या-क्या कर सकते हैं.
अपने परिवार और अपनों के प्रति अपनी हर ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाएं लेकिन उनके प्रेम में ध्रितराष्ट्र की तरह अंधे ना बनें कि आप सही और गलत के बीच का अंतर भूलकर गलत क़दम उठाने से भी ना चूकें.
Bhagavad Gita (Chapter 2)
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