Bhagavad Gita (Chapter 3) Hindi Summary

Bhagavad Gita (Chapter 3) Hindi Summary

By- Sage Vyasa

Bhagavad Gita (Chapter 3) Hindi Summary

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अध्याय 3 : कर्म योग

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अध्याय 3 : कर्म योग

श्लोक 1 :

अर्जुन कहते हैं, “हे केशव यदि आपको लगता है कि कर्म की तुलना में ज्ञान श्रेष्ठ है, तो हे जनार्दन, आप मुझे ये भयानक कर्म करने के लिए क्यों कह रहे हैं? आप ज्ञान और कर्म दो अलग-अलग बातों से मेरी समझ को भ्रमित कर रहे हैं, इसलिए, मुझे निश्चित रूप से बताएँ कि कौन से पथ पर चलकर मैं सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य प्राप्त कर सकता हूं.”
अर्थ : यहाँ अर्जुन के ज़रिए हर इंसान की मनःस्थिति को दिखाया गया है कि जब उसका सामना किसी चुनौती से होता है या किसी ऐसी परिस्थिति से होता है जो उसके मन के मुताबिक़ नहीं होती तो वो कैसे उससे भाग जाने की कोशिश करता है. चाहे उसे अलग-अलग रास्ते भी दिखाएँ जाएँ लेकिन वो समझना नहीं चाहता और कर्म ना करने के बहाने ढूँढने लगता है.

श्रीकृष्ण ने ज्ञान योग के बाद अर्जुन को कर्म योग के बारे में बताया. सुनने में ये दो अलग-अलग बातें लग सकती हैं लेकिन यही हमारी सबसे बड़ी भूल है क्योंकि ये दोनों कहीं ना कहीं जाकर साथ मिल जाते हैं. मनुष्यआत्मा को इन दोनों को अपने जीवन में उतारकर कर्म करने चाहिए. यहाँ अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बातों का गलत अर्थ निकाला कि सिर्फ़ ज्ञान हासिल कर लेना ही काफ़ी है, उसके बाद कर्म करने की ज़रुरत नहीं है. अगर ज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्ञान योग ही श्रेष्ठ है तब तो कर्म का कोई महत्त्व ही नहीं रह जाता. इन्हीं बातों में उलझकर वो श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि आत्म-विकास (self-development) के लिए उन्हें कौन से रास्ते पर चलना चाहिए. वो उनसे अनुरोध करते हैं कि वो उन्हें इन दोनों में से सिर्फ़ उस योग का ज्ञान दें जिससे उनके सारे भ्रम और दुःख दूर हो जाएँ और उनका कल्याण हो.

श्लोक 2:

श्रीकृष्ण कहते हैं, “ हे निष्पाप! बहुत पूर्व ही मैंने दो योगों के बारे में बताया है जिनमें ज्ञान योग और कर्म योग आते हैं. ज्ञान योग यानी इस शरीर और आत्मा के सच को जानना और अपने मन और इंद्रियों को काबू में कर उस आत्म भाव में टिक जाना कि मैं शरीर नहीं बल्कि आत्मा हूँ. कर्म योग यानी जब कर्मों में से मनुष्यआत्मा की हर कामना, मोह और अहंकार हट जाए तो वैसा कर्म-कर्म योग बन जाता है. मनुष्यआत्मा को कोई भी कर्म कर्ता के भाव से ना करके ख़ुद को एक निम्मित मानकर करना चाहिए ताकि वो कर्मफल के बंधन में ना बंधें. मनुष्यआत्मा ना तो कर्मों को आरम्भ किए बिना कर्मफल से मुक्त हो सकता है और ना उनका त्याग कर मुक्ति को पा सकता है.”
अर्थ: ये कहना कि ज्ञान योग और कर्म योग दो बिलकुल अलग बातें हैं हमारी नासमझी को दिखाती है क्योंकि अगर इंसान मुक्ति पाना चाहता है तो उसे इन दोनों को अपने अंदर उतारना होगा. बिना किसी स्वार्थ द्वारा किए गए कर्म हमारे मन में मौजूद कई मेंटल impressions को मिटा देते हैं. ये impression पुराने जन्मों के कर्म के कारण चित्त में बैठ जाते हैं. या ऐसा भी कह सकते हैं कि वो मनुष्यआत्मा की एनर्जी फील्ड का हिस्सा बन जाते हैं. जब ये impression मिटने लगते हैं तो मन शुद्ध होकर सोचने विचारने के लिए तैयार हो जाता है.
कर्म जैसा कि आमतौर पर समझा जाता है का मतलब है इच्छा और उस इच्छा का परिणाम. इच्छाएँ मन के स्तर पर विचार पैदा करती हैं जिन्हें जब बाहरी दुनिया में शब्दों और कर्म इंद्रियों यानि Body Organs के द्वारा व्यक्त किया जाता है तो वो कर्म या एक्शन बन जाते हैं. इसलिए असल में हमारे विचार भी कर्म होते हैं. यदि कोई मनुष्यआत्मा अपने विचारों, इच्छाओं, पसंद नापसंद से मुक्त है और अपने असली स्वरुप यानी ख़ुद को आत्मा मानता है तो इसका मतलब है कि वो अकर्मण्यता की स्तिथि में पहुँच गया है. लेकिन अकर्मण्यता का मतलब ये नहीं है कि सभी कर्मों का त्याग कर दिया जाए. बल्कि यहाँ खुद को निमित्त मानकर कर्म करना होता है।
केवल कर्म का त्याग करना या जीवन से भाग जाने से मुक्ति नहीं मिल सकती क्योंकि कुछ ना करना भी एक तरह का कर्म होता है और उसके भी परिणाम मनुष्यआत्मा को भोगने पड़ते हैं. इसके बजाय निस्वार्थ और समर्पित भाव से किए गए कर्म मन को शुद्ध करते हैं और शुद्ध मन उस ज्ञान को प्राप्त करने में मदद करता है जो कि परम आनंद का अनुभव कराता है.
ये तो प्रकृति का नियम है कि हर कर्म अपने साथ कोई ना कोई फल लेकर ज़रूर आता है और यही बंधन का कारण भी बनता है जो मनुष्यआत्मा को परमात्मा से एक होने में बाधा डालते हैं. इसलिए कर्मों के त्याग की नहीं बल्कि स्वार्थी इच्छाओं के त्याग की ज़रुरत है. तब ये वो अवस्था बन जाती है जहाँ मनुष्यआत्मा को कोई चीज़ विचलित नहीं कर पाती.

श्लोक 3:

श्रीकृष्ण कहते हैं, “इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कोई भी मनुष्यआत्मा एक पल भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता क्योंकि उसे प्रकृति से ऐसे गुण मिले हैं जो उसे कर्म करने के लिए विवश करते हैं. जो मनुष्यआत्मा कर्मेंद्रीयों में अटका रहता है वो अज्ञानी और मूर्ख है. किन्तु हे अर्जुन! जो मनुष्यआत्मा मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त होकर समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ कहलाता है. इसलिए तू कर्म कर क्योंकि कर्म ना करने से श्रेष्ठ होता है कर्म करना और बिना कर्म किए जीवन नहीं चल सकता.”
अर्थ: इस श्लोक में सही कर्म का विज्ञान और सही जीवन जीने की कला को समझाया गया है। ये आत्मा का स्वभाव होता है कि वो हमेशा सक्रीय यानी एक्टिव बनी रहती है. अगर आत्मा मौजूद ना हो तो ये शरीर अपने आप हिल भी नहीं सकता. मनुष्यआत्मा हमेशा तीन गुणों के प्रभाव में रहता है जो उसे प्रकृति से मिलते हैं जो उसके सात्विक गुण, राजसिक गुण और तामसिक गुण पर आधारित होते हैं. कोई भी जीव एक भी पल कर्म किए बिना नहीं रह सकता; यहां तक कि अगर वो शारीरिक रूप से कुछ नहीं कर रहा है तब भी उसका दिमाग और बुद्धि हमेशा सक्रीय रहते हैं। सत्व गुण मनुष्यआत्मा से सात्विक कर्म करवाते हैं जो मनुष्यआत्मा को मोक्ष प्राप्त करने में मदद करते हैं। राजसिक और तामसिक गुण ऐसे कर्म करवाते हैं मनुष्यआत्मा को इस संसार से बाँधते हैं। इसलिए जब तक मनुष्यआत्मा पंच तत्वों से बने इस शरीर को धारण किए हुए जीता है तब तक वो इन तीनों गुणों और अपनी मानसिक प्रवृत्ति (tendency) के प्रभाव में रहता है और कर्म से बच नहीं सकता. कर्म किए बिना जीवन एक पल भी आगे नहीं बढ़ सकता.
लेकिन ये गुण ऐसे मनुष्यआत्मा को प्रभावित नहीं कर सकते जिसने अपने असली स्वरुप यानी आत्मा को समझ लिया है. जो अपने आत्म भाव में टिक जाता है वो इन गुणों से ऊपर उठ जाता है. ऐसा मनुष्यआत्मा प्रकृति के गुणों से पार चला जाता है और कर्म उसे बाँध नहीं पाते. जो मनुष्य आत्मा के स्वरुप को नहीं पहचान पाता वो अज्ञानता में बह जाता है और इन गुणों के प्रभाव में आकर कर्म करता है. जब तक जीवन है तब तक कर्म तो होते रहेंगे. यहाँ तक कि मनुष्यआत्मा का सोचना भी कर्म ही कहलाता है.
जब इच्छा से कामना ख़त्म हो जाए, जब मनुष्यआत्मा कर्म में अपना स्वार्थ देखना बंद कर दे तो उस स्थिति को ही मुक्ति कहा गया है क्योंकि वो कर्म कर्मफल को जन्म नहीं देते और मनुष्यआत्मा को उसे भोगने के लिए जन्म नहीं लेना पड़ता. इस तरह वो जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होता है. जब ये कहा जाता है कि कोई मनुष्यआत्मा कर्मों से मुक्त हो गया तो इसका मतलब ये नहीं है कि वो कोई कर्म ही नहीं कर रहा है, वो भी कर्म करता है लेकिन जागृत अवस्था में यानी बिना किसी अहंकार के, बिना बदले में कुछ पाने की इच्छा से और तब वो कोई कर्म ख़ुद को कर्ता मानकर नहीं करता. इच्छा और आसक्ति (attachment) से मुक्त होकर वो कर्मों के बंधन से भी मुक्त हो जाता है. जैसे भुना हुआ या उबला हुआ बीज अंकुरित होने की शक्ति खो देता है उसी तरह आत्म भाव में टिककर किए गए कर्म किसी कर्मफल को जन्म नहीं देते. वे कर्म ही अकर्म सुकर्म कहलाते हैं, जबकि खुद को शरीर मानकर कर्मेन्द्रियों की इच्छा के लिये किए गए कर्म विकर्म बन जाते हैं।
जब मनुष्यआत्मा की पाँच इन्द्रीयाँ,जिन्हें (organs of knowledge) यानी ज्ञानेंद्रीयाँ कहते हैं, यानी आँख, नाक, जीभ, कान और त्वचा, का संपर्क बाहरी दुनिया यानी outside object से होता है तो वो हमारे मन तक जाते हैं. मन इन इंद्रियों द्वारा बाहरी दुनिया से संपर्क बनाता है, उसे अनुभव करता है. इसलिए अगर मन इन इंद्रियों पर काबू पा ले तो इंद्रियों के सामने रहते हुए भी कोई परिस्थिति या object मनुष्यआत्मा के इंद्रियों पर प्रभाव नहीं डाल पाएगी. इसलिए यहाँ मन के ज़रिए इंद्रियों को कंट्रोल करने के लिए कहा गया है.
जब इंद्रियों पर काबू पा लिया जाता है तो भारी मात्रा में एनर्जी जमा होने लगती है और इस एनर्जी को सही दिशा में लगाना बहुत ज़रूरी होता है नहीं तो वो मनुष्यआत्मा के मन को बेचैन कर देगी. इस एनर्जी का इस्तेमाल सही कर्मों को करने के लिए किया जाना चाहिए. इसमें ये सलाह भी दी जाती है कि मनुष्यआत्मा कर्म कर्ता के भाव से ना करे और ना ही उसके बदले में कोई फल पाने की कामना करे ताकि मन में नए चिन्ह या impression इकट्ठा ना हों पाएँ बल्कि ये मौजूदा इच्छाओं को ख़त्म करने का साधन बन सके. इस तरह जो कर्म पहले मनुष्यआत्मा को बंधन में जकड़ रहा था अब वही उसके मुक्ति का आधार बन जाता है.
कर्म के पाँच अंग (organs of action), जिन्हें कर्मेंद्रीयाँ कहा जाता है यानी हाथ, पैर, वाणी, जननांग (सेक्सुअल ऑर्गन) और गुदा (excretory ऑर्गन). बोलना, किसी चीज़ को हाथ से पकड़ना या महसूस करना , चलना-फिरना, मल त्याग करना और सेक्सुअल एक्टिविटी बाहरी दुनिया के साथ respond करने और बातचीत करने की आत्मा की शक्तियां हैं या ज़रिया है। इन अंगों पर लगाम लगाने के बजाय अगर कोई मनुष्यआत्मा अपने मन में इनके बारे में विचार करता है या सोचता रहता है, तो उसे पाखंडी और पाप आचरण का आदमी कहा जाता है। क्योंकि हैं तो यह ज्ञानेंद्रियाँ परंतु यही इंद्रियाँ तमोगुण के प्रभाव में आने से मन सांसारिक इच्छाओं के वश मे कर लेती हैं। और मन अपना सही कर्म भूलकर बॉडी ऑर्गन्स की जरूरतों का गुलाम बन जाता है और मन-मानी करने लगता है। बुद्धि भी भ्रष्ट होजाती है और आत्मा बुद्धिमानी से काम न लेकर कमजोर हो जाती है। ऐसे में आँखें वह देखती हैं जो देखने योग्य नही है। जीभ वह बोलती है जो बोलने लायक शब्द नहीं हैं, कान ऐसी बातें सुनने में रस लेने लग जाते हैं जिन्हे नहीं सुनना चाहिये, और हाथ- पैर जननांग के गुलाम बन ऐसे कर्म करने में ही लगे रहना चाहते हैं जो करना पाप है।

सच्ची तपस्या सिर्फ़ कर्मेंद्रीयों को काबू में करना नहीं होता बल्कि अपने मन, बुद्धि, संस्कारों और पाँच इंद्रियों को काबू में करना भी होता है. सिर्फ़ ज्ञान हासिल करके और शरीर से कोई कर्म ना करना एक श्रेष्ठ जीवन नहीं हो सकता क्योंकि मनुष्यआत्मा बाहरी दुनिया में किए जाने वाले कर्म को तो रोक सकता है लेकिन उसके शरीर के अंदर भी तो लगातार कर्म हो रहे हैं यानी उसका पाचन तंत्र (digestive system), साँस लेना, मल त्याग करना आदि ये सभी उसके वश में नहीं हैं इसलिए वो पूरी तरह कर्मों से पीछा नहीं छुड़ा सकता. अगर उसने कर्मों का त्याग भी कर दिया लेकिन अपनी इच्छाओं को नहीं रोका, जो उसे बेचैन करती हैं, तो ऐसा संयम बेकार है.

श्लोक 4:

श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, “हे अर्जुन तू आसक्ति से रहित होकर अपने कर्म को यज्ञ के निमित्त मानकर कर. सृष्टि की रचना करने वाले प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ के साथ मानव जाती का निर्माण किया और कहा कि ये यज्ञ मनुष्यआत्मा की उन्नति का कारण बनेगी. इस यज्ञ के माध्यम से तुम देवताओं को आगे बढ़ाओ और देवता तुम्हें आगे बढ़ाएँगे. इस तरह निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को आगे बढ़ाते हुए तुम परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे. जो मनुष्यआत्मा सिर्फ़ ख़ुद के लिए सोचता है और देवताओं का धन्यवाद नहीं करता वो असल में चोर होता है.”
अर्थ : यहाँ यज्ञ का मतलब है जिस कर्म में मनुष्यआत्मा का स्वार्थ ना हो, आसक्ति और अहंकार ना हो. यज्ञ का मतलब किसी अच्छे उद्देश्य के लिए किया गया निष्काम कर्म. परोपकार करना और दया की भावना भी यज्ञ बताए गए हैं. जब तक कर्म को निस्वार्थ भाव से नहीं किया जाएगा तब तक दुनिया कर्म के बंधन में उलझी रहेगी. ऐसा कर्म आत्म समर्पण की भावना के साथ सभी की भलाई के लिए किया जाता है. ऐसा कर्म मनुष्यआत्मा को बंधन में नहीं बाँधता.
जब सृष्टि के रचयिता ने ब्रह्मा के द्वारा ये दुनिया बनाई तो उन्होंने यज्ञ यानी निस्वार्थ भाव से किए गए कर्म के बारे में बताया और इसे उन्होंने प्रकृति के माध्यम से समझाया जैसे सूरज और चाँद का चमकना, नदियों का बहना, हवा का बहना आदि. ये सभी कर्म बिना किसी स्वार्थ के किए गए बलिदान को दिखाते हैं और बदले में वो मनुष्यआत्मा से कुछ नहीं माँगते. श्लोक के दूसरे भाग का अर्थ है कि अगर मनुष्यआत्मा बिना किसी अहंकार और लगाव के आत्म त्याग की भावना के साथ कर्म करता है तो उसके लिए कोई भी लक्ष्य हासिल करना असंभव नहीं होता.
इस श्लोक में प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने की सीख दी गई है क्योंकि वो भी इस रचना में अपनी भूमिका निभाते हैं. चाहे कोई शुक्रिया कहे या ना कहे, सूरज तो तब भी उगता है, हवा भी निरंतर चलती रहती है और बारिश भी होती है. लेकिन इस रचना में उनके कर्म के योगदान के प्रति आभार व्यक्त कर के मनुष्यआत्मा भी अपने कर्तव्य के महत्त्व को समझने लगता है और ख़ुद को इस रचना में एक सक्रीय (active) भागीदार मानने लगता है. तब जाकर वो धीरे-धीरे ख़ुद को उस परम आत्मा के अंश के रूप में पहचान पाता है. जब प्रकृति सिर्फ़ देना जानती है और बदले में कुछ माँगती नहीं और कुछ पाने की इच्छा नहीं करती तो मनुष्यआत्मा का भी कर्तव्य है कि वो प्रकृति के लिए निस्वार्थ भाव से कर्म करे. इस तरह एक दूसरे की मदद करते हुए मनुष्यआत्मा जीवनमुक्ति को प्राप्त कर सकता है. यहाँ इस बात को समझाया गया है कि ब्रह्मांड में मौजूद हर चीज़ एक दूसरे से जुड़ी हुई है. यहाँ प्रकृति और जीव जीने के लिए एक दूसरे पर निर्भर करते हैं.
यहाँ ये भी कहा गया है कि जो मनुष्य स्वार्थ में डूबकर सिर्फ़ ख़ुद के लिए कर्म करता है, प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त नहीं करता वो असल में चोर होता है. इसलिए वेदों में कहा गया है कि हर मनुष्यआत्मा इस सृष्टि में एक सक्रीय भागीदार होता है और उसे अपना कर्म निस्वार्थ भावना से करना चाहिए क्योंकि हर एक की मंजिल एक ही है यानी मोक्ष की प्राप्ति और वहाँ तक पहुँचने का रास्ता है कर्म योग यानी निस्वार्थ भाव से किया गया कर्म.

श्लोक 5 :

श्रीकृष्ण आगे समझाते हैं, “यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी मनुष्यआत्मा अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं , वे तो पाप को ही खाते हैं. सभी जीवों का शरीर अन्न से चलता है, अन्न बारिश से उत्पन्न होता है, त्याग से बारिश होती है और बलिदान कर्म से जन्म लेता है. ये जान ले कि कर्म वेदों से उत्पन्न होते हैं और वेद उस अविनाशी तत्व से जिसे परमात्मा कहते हैं. हे पार्थ! जो मनुष्यआत्मा इस लोक में सृष्टि के चक्र के अनुसार नहीं चलता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता और इन्द्रियों द्वारा भोगों में लिप्त रहता है उसका जीवन व्यर्थ है. लेकिन जो मनुष्यआत्मा अपने असली स्वरुप को पहचान लेता है, उसमें तृप्त और संतुष्ट हो जाता है उसके लिए कोई कर्तव्य बाकी नहीं रह जाता.”
अर्थ : इस लोक में हर जीव का शरीर भोजन से पोषित होता है. बारिश बीज को पोषक अन्न में बदलने का काम करती है. इसी तरह जब निस्वार्थ भाव से किसी भी क्षेत्र में कर्म किया जाता है तो बारिश यानी ऐसी स्थिति बनने लगती है जिसके अन्न यानी फल से पूरा समाज पोषित होता है. सही कर्म का ये सिद्धांत स्वयं परमात्मा से आया है जिसे वेदों के माध्यम से बताया गया है.
ब्रह्मांड का हर सदस्य सृष्टि चक्र को ठीक से चलाने के लिए अपना योगदान देता है. लेकिन सभी जीवों में सिर्फ़ मनुष्यआत्मा को कर्म की आज़ादी का विकल्प दिया गया है. कुछ लोग तो अपना योगदान बखूबी देते हैं मगर कुछ सिर्फ़ ख़ुद के बारे में सोचते हैं. जब मनुष्यआत्मा स्वार्थी इच्छाओं और सुखों में पड़ जाता है तो कर्म के चक्र में बाधा पैदा होने लगती है. यहाँ यज्ञ और त्याग परमात्मा और मनुष्यआत्मा आत्मा के बीच के पुल को दिखाती है यानी इस ब्रह्मांड में हम सभी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. इसलिए कहा गया है कि जो सिर्फ़ अपने लिए कर्म करता है उसका जीवन निरर्थक है.
कर्म होगा तो उसका फल भी अवश्य होगा. अतीत यानि पास्ट के पाप कर्म आज के दुखों का कारण हैं और आज के पाप कर्म ही भविष्य के दुःख का कारण बनते हैं. अगर निस्वार्थ भाव से कर्म किए जाएँ तो समाज के सभी दुखों को मिटाया जा सकता है. इसके विपरीत जो मनुष्यआत्मा सिर्फ़ ख़ुद के लिए अर्थात स्वार्थी उद्देश्य से कर्म करता है वो पाप कर्म कहलाता है. बिना किसी स्वार्थ भावना के कर्म करने से, स्वार्थी जीवन निःस्वार्थ जीवन में बदल जाता है और मनुष्यआत्मा इस बात को समझने लगता है कि सृष्टि में सभी जीव जीवन जीने के लिए एक दूसरे पर निर्भर होते हैं यानी interdependent होते हैं.
मनुष्यआत्मा को उसकी इच्छाएँ या कुछ ज़्यादा पाने की इच्छा ही बाहरी दुनिया में कर्म करने या एक्शन लेने के लिए प्रेरित करती है. लेकिन जो मनुष्यआत्मा आत्मा ख़ुद में पूर्ण होता है वो ख़ुशी के लिए बाहरी चीज़ों पर निर्भर नहीं होता. वो अपने अंदर ही संतोष और परम आनंद को अनुभव करने लगता है. इस संतोष और आनंद को अनुभव करने के बाद उसमें कोई इच्छाएँ बाकी ही नहीं रह जाती और जहाँ इच्छाएँ नहीं होती वहाँ कर्म के बंधन नहीं होते.
एक आम आदमी किसी नुक्सान से बचने या कोई फ़ायदा उठाने के लिए कर्म करता है लेकिन जो मनुष्यआत्मा ख़ुद में उस अनंत संतुष्टि को महसूस कर लेता है वो कर्म के बंधन से छूटने लगता है क्योंकि ना उसे कुछ खोने का डर होता है और नाही कुछ पाने का अरमान. ऐसा मनुष्यआत्मा अपनी ख़ुशी ढूँढने के लिए किसी दूसरे जीव या संसार की वस्तुओं की खोज में नहीं रहता.
यज्ञ अर्थात सृष्टि की पुनर्स्थापना का समय या गीत ज्ञान को सुनने का समय जब इस ज्ञान यज्ञ मे अपनी इच्छाओं की आहूति परमात्मा को अर्पित की जाती है। यह समझ विकसित हो जाती है कि “मैं” अभिमान का ही दूसरा नाम है। केवल मंदिर का प्रसाद ही प्रसाद नहीं बल्कि घर पर बनने वाला भोजन वह भी परमात्मा को अर्पित कर , संभव हो तो किसी अन्य के लिए एक भाग अलग कर उस भोजन को प्रसाद रूप में कहना चाहिये। क्योंकि गीत ज्ञान परमात्मा के प्रति समर्पण सिखलाता है। तेरा तुझको अर्पण भाव ही सच्चा बलिदान कहलाता है। जबकि परमात्मा अभोक्ता है तब भी यह भाव परमात्मा को पसंद है।

श्लोक 6:

श्रीकृष्ण, “हे अर्जुन! तू आसक्ति से परे होकर अपना कर्तव्य निभा तभी तेरा कल्याण होगा. श्रेष्ठ पुरुष जो कर्म करते हैं बाकी मनुष्यआत्मा उसी के अनुसार कर्म करने लगते हैं. तीनों लोकों में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मैं प्राप्त करना चाहता हूँ फ़िर भी मैं लगातार कर्म करने में लगा हुआ हूँ क्योंकि अगर मैं कर्म नहीं करूँगा तो मनुष्यआत्मा मेरे ही रास्ते का अनुसरण करेंगे और मैं उनके भ्रम और विनाश का कारण बनूँगा.”
अर्थ : श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि मनुष्यआत्मा को बिना किसी लगाव या आसक्ति के अपना कर्म करना चाहिए तभी उसे परम आनंद अनुभव हो सकता है. आज के युग में श्रेष्ठ पुरुष का मतलब हुआ लीडर यानी लीडर जो करते हैं उसका गहरा असर आम जनता पर होता है और वो उसी आचरण के अनुसार कर्म करने लगते हैं. इसलिए एक लीडर को कभी अपने कर्म से पीछे नहीं हटना चाहिए और अपने विवेक से सही रास्ता अपनाकर सही कर्म करना चाहिए ताकि वो एक अच्छा example सेट कर सके. जो समझदार है वही लीडर है। जो यह सोचकर कर्म करता है कि जैसा कर्म मैं करूंगा, मुझे देखकर अन्य भी करेंगे
श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि अगर भगवान् ही कर्म नहीं करेंगे तो मनुष्यआत्मा उनके रास्ते पर चलने लगेंगे और उनका जीवन निर्जीव और जड़ (inactive) के समान हो जाएगा जिससे दुनिया को बहुत नुक्सान होगा क्योंकि पूरा ब्रह्मांड केवल कर्म के कारण ही चल रहा है.
ब्रह्मांड में हर काम बड़े ही सुचारू रूप से चलता है, उसमें कहीं कोई हलचल नहीं है. ग्रहों की चाल, मौसम का बदलना आदि सब प्रकृति के नियम के हिसाब से चलते हैं. भगवान् बाहरी दुनिया के नियमों को नियंत्रित नहीं करते न ही हमारे मन में चल रही भावनाओं और विचारों को भी नियंत्रित करते हैं. ज्ञान से ही मनुष्यआत्मा आत्मा का मन भावनाओं पर कंट्रोल करने की शक्ति पाता है।

श्लोक 7:

श्रीकृष्ण, “हे कुंती पुत्र! जिस तरह अज्ञानी कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं वैसे ही संसार के कल्याण की कामना करते हुए, बिना आसक्ति के ज्ञानी जन कर्म करते हैं. ज्ञानी पुरुष को अपने कर्मों द्वारा दूसरों को भी सत कर्म करने के लिए प्रेरणा देनी चाहिए और उन्हें भ्रमित नहीं करना चाहिए.”
अर्थ : समाज का हर प्राणी अपने चुने हुए क्षेत्र में अपना काम करने में व्यस्त रहता है. ज्ञानी जन भी आम आदमी की तरह दुनिया में उसी उत्साह और जोश के साथ काम करते हैं, इसमें अंतर सिर्फ़ इतना है कि अज्ञानी के कर्म फल के लिए आसक्ति और चिंताओं से प्रेरित और घिरे होते हैं जबकि ज्ञानी मनुष्यआत्मा लगाव के बिना और बड़े पैमाने पर दुनिया के कल्याण के उद्देश्य के लिए काम करते हैं। आसक्ति तभी बाधा बनती है, जब वह अहंकार पर टिकी हुई हो। यहाँ कहने का भाव यह है कि एक अज्ञानी व्यक्ति अपने स्वार्थ और खुशी के लिए कर्म करता है; लेकिन ज्ञानी दूसरों के कल्याण के लिए उसी उत्साह के साथ काम करता है।

श्लोक 8:

श्रीकृष्ण, “वास्तव में सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए जा रहे हैं। लेकिन वह मनुष्यआत्मा जिसका मन अहंकार से बहक जाता है, वो सोचता है कि “वो कर्ता है'.”
अर्थ : जैसा कि पहले समझाया गया है कि अज्ञानता से इच्छाओं का जन्म होता है जिससे विचार उत्पन्न होते हैं और विचार इन मानसिक गुणों यानी सत्व, रज और तमो गुण, से प्रभावित होकर बाहरी दुनिया में कर्म के रूप में प्रकट होते हैं. इसलिए जितने शुद्ध विचार होंगे उतने ही पुण्य कर्म होंगे.
कर्म शब्द में पाँच ज्ञानेंद्रियों और पाँच कर्मेंद्रियों द्वारा किए गए काम शामिल होते हैं. कर्म में बुद्धि, मन और अहंकार भी शामिल होते हैं अर्थात सोचना भी कर्म करना ही कहलाता है. इसलिए कर्म तो लगातार हो रहे हैं चाहे मनुष्यआत्मा चाहे या ना चाहे. मनुष्यआत्मा का साँस लेना, भोजन पचने की प्रक्रिया आदि सब अपने आप होते हैं इसमें उसका कोई वश नहीं होता इसलिए ऐसा सोचना ठीक नहीं है कि वो ही है जो हर कर्म कर रहा है और अगर वो कर्म करना बंद कर देगा तो संसार में सब कुछ ठहर जाएगा या रुक जाएगा. इस संसार में जो भी कर्म होते हैं, वे प्रकृति के गुण मनुष्यआत्मा से करवाते हैं और मनुष्य ख़ुद इसमें कुछ नहीं करता। एक अज्ञानी व्यक्ति, शरीर और इंद्रियों के साथ ख़ुद की पहचान करता है और इसे “मैं” के रूप में सोचता है कि वो ख़ुद कर्ता है।
दूसरे शब्दों में, वह सोचता है कि वह सुन रहा है, वो देख रहा है, सो रहा है, चल रहा है और इस तरह वो ख़ुद को इन कर्मों को करने वाला यानी कर्ता मान लेता है। इस तरह वो ख़ुद को उन कर्मों से जोड़ देता है जो असल में गुण उससे करवा रहे हैं। यही कारण है कि कर्म उसके लिए बंधन का कारण बन जाता है। इसलिए उसे उन कर्मों का फल भोगने के लिए बार-बार जन्म लेना पड़ता है. लेकिन ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि ये गुण ही मनुष्यआत्मा से सब कर्म करवाते हैं इसलिए वो ख़ुद को अकर्ता मानते हैं. अज्ञानी तो फल पाने की इच्छा से कर्म करते हैं. ज्ञानी जन को अचानक ज्ञान देकर ऐसे लोगों के विश्वास को हिलाना नहीं चाहिए क्योंकि अगर उसका मन बेचैन हो गया तो वो कर्मों का त्याग कर देगा. इसलिए शुरुआत में उसे फल के लगाव के साथ कर्म करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए और धीरे-धीरे उसे निस्वार्थ भाव के महत्त्व को समझाना चाहिए.

श्लोक 9:

श्रीकृष्ण कहते हैं, “सारे कर्म ‘मुझे’ समर्पित कर ख़ुद को लालसा और दुःख से मुक्त कर तू बस अपना कर्म कर. जो मनुष्य आत्मा मेरी दी गई सीख को विश्वास के साथ अपनाकर कर्म करता है वो सभी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है। लेकिन जो इसमें दोष निकालता है, संदेह करता है वो मोह में फँसा हुआ मूर्ख होता है.”
अर्थ : यहाँ “मुझे” शब्द का अर्थ है परमात्मा, सुप्रीम सोल, भगवान. श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्यआत्मा को सारे कर्म परमात्मा को समर्पित कर देने चाहिए. यहाँ समर्पण का मतलब ये नहीं है कि मनुष्यआत्मा कर्म ही ना करे बल्कि तात्पर्य ये है कि वो बिना किसी लगाव और बिना उस कर्म से जुड़े हुए कर्म करे. कर्म मनुष्यआत्मा को तब बाँधते हैं जब वो उसके परिणाम से कोई उम्मीद करता है. बिना किसी लगाव और इच्छा से किए गए कर्म बाँधते नहीं क्योंकि उसके परिणाम से मनुष्यआत्मा को कोई फ़र्क नहीं पड़ता यानी उसका कोई दुखद रिएक्शन नहीं आता. इसका मतलब ये भी है कि उन कर्मों को छोड़ देना चाहिए जिसके पीछे कोई गलत उद्देश्य या मंशा हो. कर्म के पीछे के उद्देश्य की शुद्धि तब ही संभव है जब मन को आत्मा और परमात्मा के भाव में टिका दिया जाए. बिना लालसा और अहंकार के कर्म करने का मतलब है बिना अतीत की यादों या भविष्य की चिंताओं किए बिना आज में जीना. मनुष्यआत्मा को इस भावना के साथ कर्म करना चाहिए कि यहाँ जो कुछ भी परमात्मा का है और जो कुछ भी हो रहा है वो मनुष्यआत्मा को माध्यम बनाकर करवा रहे हैं.
श्रद्धा या विश्वास एक मानसिक नज़रिया होता है. श्रीकृष्ण कर्म योग को ऐसा मार्ग बताते हैं जो अंत में हमें परमात्मा से जोड़ देता है क्योंकि जब पूरे विश्वास के साथ बिना कोई कमी निकाले हुए कर्म किए जाते हैं तो वो हमारे मन की इच्छाओं या वासनाओं को ख़त्म करने लगती है और मन ध्यान लगाने के लिए शुद्ध हो जाता है. लेकिन जो परमात्मा की बताई हुई बातों में दोष ढूँढते हैं और इसका पालन नहीं करते वो विनाश की ओर ख़ुद बढ़ने लगते हैं.
कर्म योग जीवन जीने का एक तरीका है और अगर किसी को उसकी कृपा प्राप्त करनी है तो उसे इस योग को अपने जीवन में उतारकर जीना होगा। ये मार्ग मन की इच्छाओं को ख़त्म करना सिखाती है। जब कर्म में से अहंकार और अहंकारी इच्छाओं को हटा दिया जाता है, तो ऐसे शुद्ध मन के माध्यम से किए गए कर्म दिव्य कर्म बन जाते हैं. जो व्यक्ति इस तरह से कर्म नहीं करता वह अपना विवेक और क्षमता खो देता है और अंत में अपने विनाश का कारण बनता है।

श्लोक 10:

श्रीकृष्ण, “सभी प्राणी अपने स्वभाव और गुणों के प्रभाव में आकर कर्म करते हैं. प्रेम और घृणा जो इंद्रियों को सांसारिक चीज़ों के लिए महसूस होती है उसे रोका नहीं जा सकता लेकिन मनुष्यआत्मा को उनके झांसे में नहीं आना चाहिए ; क्योंकि वे उसके दुश्मन हैं”।
अर्थ: हर मनुष्यआत्मा की एक प्रकृति या प्रवृत्ति होती है जो उसके विचारों पर प्रभाव डालती है. पिछले जन्म में किए गए कर्मों के परिणामस्वरूप हर मनुष्यआत्मा तीन गुणों की अलग-अलग मात्रा के साथ पैदा होता है, इसे उसकी प्रकृति या स्वभाव कहा जाता है. यही प्रवृत्ति मनुष्यआत्मा के कर्म करने का मुख्य आधार होती है. इसके प्रभाव से कोई नहीं बच सकता क्योंकि भगवान् ख़ुद कहते हैं कि पिछले कर्म अपनी प्रकृति के हिसाब से प्रभाव पैदा करते हैं.
लगाव या घृणा करना तो इंद्रियों का स्वभाव है. हालाँकि संसार की किसी वस्तु में आकर्षित करने की क्षमता नहीं होती बल्कि ये तो मनुष्यआत्मा का मन है जो वासनाओं में बहकर हलचल पैदा करता है. श्रीकृष्ण इससे भागने के लिए नहीं कहते बल्कि कहते हैं कि आत्मा को अपनी इंद्रियों को काबू में रखना चाहिए, उसका गुलाम नहीं बनना चाहिए. जब मनुष्यआत्मा किसी कर्म को पसंद या नापसंद की भावना से करता है तो वो मनुष्यआत्मा को बाँधने लगता है. लेकिन जब वो अहंकार और इच्छाओं से दूर रहते हुए कर्तव्य की भावना से कर्म करता है तो वो बंधन के जाल में नहीं उलझता.
इस तरह मन को नियंत्रित करने की प्रक्रिया में - इसे आसक्ति और घृणा करने से रोकना –और अपना कर्म करना वही उसका पुरुषार्थ होता है। इसलिए ये कहा जा सकता है कि अपने कर्मों का त्याग करना मुक्ति पाने का रास्ता नहीं है बल्कि अपने कर्मों को सही दिशा में मोड़ देना मनुष्यआत्मा को मोक्ष की ओर ले जाता है.

श्लोक 11:

श्रीकृष्ण कहते हैं, “अपना धर्म, भले ही वो ठीक से ना भी किया जाए, फ़िर भी दूसरे के धर्म को अपनाने से कहीं ज़्यादा श्रेष्ठ है और अपने धर्म के पालन में अगर मृत्यु भी आ जाए तो वो भी कल्याणकारी होती है.”
अर्थ : हालाँकि यहाँ धर्म शब्द का अर्थ कर्तव्य के रूप में बताया गया है लेकिन इसका एक विशेष अर्थ है मनुष्यआत्मा की मूल प्रकृति. हर मनुष्यआत्मा का अपना एक धर्म होता है उसे स्वधर्म कहते हैं. स्वधर्म यानी ख़ुद के धर्म को जानना, अपने आत्म भाव को जानना. स्वधर्म यानी जो मनुष्यआत्मा अंदर से होता है यानी उसकी क्या रूचि है, जीवन में उसका क्या उद्देश्य है, उसके मन की आवाज़ उसे क्या करने के लिए प्रेरणा देती है, वही उसका स्वधर्म होता है. स्वधर्म यानी उस मनुष्यआत्मा की originality क्या है. स्वधर्म का अर्थ यह भी है कि स्वयं को मूल रूप से पहचानना। यह प्रकृति यानि पाँच तत्वों का बना यह शरीर। नाम इसी शरीर पर पड़ता है, कुल भी इस शरीर को प्राप्त होता है। परंतु आत्मा अर्थात परमात्मा की रचना । जो कि पराभौतिक तत्वों से मिल कर बनी है। हर आत्मा का स्वधर्म है ज्ञान, शांति , सुख, प्रेम, आनंद, पवित्रता और शक्ति। यही तो परमात्मा से जन्म-जन्मतार मांगते आए हैं।
इसे इस तरह सोचें कि मनुष्यआत्मा हमेशा किसी और की तरह बनने की कोशिश करता है और समस्या वहीँ खड़ी होना शुरू होती है. मनुष्यआत्मा को किसी और की तरह बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए बल्कि उसका जिस ओर रुझान है, झुकाव है उसे वही कर्म करना चाहिए. कई बार मनुष्यआत्मा किसी दूसरे के जीवन से आकर्षित होकर उसकी नक़ल करने लगता है, उसके जैसा बनने लगता है, इसे ही यहाँ दूसरे का धर्म अपनाना कहा गया है. अगर मनुष्यआत्मा को अपने फील्ड में एक्सपर्ट होना है, कामयाबी हासिल करनी है तो उसे वो चुनना चाहिए जो उसके मन की आवाज़ उसे करने के लिए कहती है तभी वो काम उसे ख़ुशी, सुकून देगी और वो अपने काम में एक्सपर्ट भी बनेगा. हर मनुष्यआत्मा एक प्रकृति के साथ जन्म लेता है और उसे उसी के अनुसार जीवन जीना चाहिए तभी वो सुख और शांति अनुभव कर सकता है.
क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन का धर्म था युद्ध करना लेकिन वो युद्ध के परिणाम से घबराकर अपने धर्म को छोड़कर संन्यास लेने की बात कर रहे थे. यहाँ श्रीकृष्ण उन्हें याद दिलाते हैं कि उन्हें अपने धर्म के पथ पर चलना चाहिए. अपने व्यक्तितत्व को दबाना और दूसरों का अनुसरण (follow) करना ख़तरनाक हो सकता है. किसी दूसरे के धर्म का पालन करने की तुलना में अपने धर्म को करना, चाहे वो ठीक से ना भी किया गया हो, तब भी ज़्यादा ख़ुशी और संतोष देता है. हम सभी को अपने अपने कर्तव्य बखूबी निभाने चाहिए. अर्जुन लड़ाई से भागकर एक शांतिपूर्ण जीवन जीना चाहते थे, ये दिखाता है कि ये मनुष्यआत्मा की स्वाभाविक इच्छा से प्रेरित है कि जो भी काम या परिस्तिथि उसे मुश्किल लगती है या उसके मन के विपरीत होती है तो वो उसे छोड़कर उस चीज़ को अपनाने की कोशिश करता है जो उस वक़्त उसकी इंद्रियों को ज़्यादा आसान लगती है. उसे ऐसी कमज़ोरी के आगे घुटने नहीं टेकने चाहिए. मनुष्यआत्मा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मर जाना वास्तव में बहुत बेहतर है, क्योंकि दूसरे के कर्तव्य में कई नुकसान हैं क्योंकि किसी दूसरे की तरह बनने की चाहत में वो अपना अस्तित्व या orginality भी खो देता है और किसी दूसरे की तरह बन भी नहीं पाता.

श्लोक 12:

अर्जुन कहते हैं, “हे कृष्ण मनुष्य ना चाहते हुए भी किससे प्रेरित होकर पाप कर्म करता है?”
अर्थ : अर्जुन के द्वारा उठाया गया यह सवाल हमारे जीवन के हर रोज़ की स्थितियों को दिखाता है। हर मनुष्यआत्मा जानता है कि क्या सही है और क्या सही नहीं है, क्या अच्छा है-क्या बुरा है। फिर भी जब कर्म करने की बात आती है तो मनुष्यआत्मा ना जाने क्यों बहक जाता है और गलत कर्म करने की ओर आकर्षित होता है।
अर्जुन समझ नहीं पा रहे थे कि इंसान सोचता कुछ है लेकिन करता कुछ और है, इसके पीछे वजह क्या है। हमारे अंदर का परमात्मा या पॉजिटिव एनर्जी चाहती है कि हम महान चीजों को प्राप्त करें, लेकिन हमारे भीतर की नेगेटिव एनर्जी चाहती है कि हम अपनी इच्छा के विरुद्ध जाकर गलत कर्म करें। ऐसा लगता है जैसे कोई बाहरी ताकत मनुष्यआत्मा को ऐसा करने के लिए विवश करती है। इस बात से अर्जुन सोच में पड़ गए और उन्होंने श्रीकृष्ण से ये सवाल किया.

श्लोक 13:

श्री भगवान् ने कहा, “हे अर्जुन! इसका कारण इच्छाएँ हैं जो रजो गुण के कारण पैदा होती हैं और ये जान ले कि इस लोक में ये मनुष्यआत्मा की सबसे बड़ी दुश्मन है. जिस तरह अग्नि धुएं से ढँक जाती है, दर्पण धूल से ढँक जाता है और गर्भ से भ्रूण ढँका रहता है, वैसे ही यह (ज्ञान) उस (इच्छा) से ढक जाती है और हे अर्जुन, कभी ना बुझने वाली अग्नि के समान ये इच्छाएँ मनुष्यआत्मा की बुद्धि को ढँक लेती हैं. ये मन और बुद्धि में वास करती है. ये काम या कामना मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को ढककर जीवात्मा को मोहित करती है इसलिए तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को मार डाल. इन्द्रियों को स्थूल शरीर से ऊपर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से ऊपर मन है, मन से भी ऊपर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी बहुत ऊपर है वह आत्मा है. इस तरह बुद्धि से ऊपर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे कुंती पुत्र तू इस शत्रु को मार डाल.”
अर्थ : इस दुनिया में हर तरह के पाप और गलत कर्मों का कारण इच्छा है। जब हम वस्तुओं को पाने की इच्छा रखते हैं तो इन्हे इच्छाएं कहते हैं और जब मनुष्यों से पाने की इच्छा करते हैं यानि एक्सपेक्टेशन्स रखते हैं तो उन्हे कामनायें कहा जाता है। और मनुष्य का मनुष्य से शारीरिक सुख पाने की कामन करना ही काम विकार अथवा लस्ट कहा गया है। जब मनुष्यआत्मा संसार की चीज़ों को देखता है तो उसके प्रति आकर्षित होता है और वो उसके बारे में सोचने लगता है. आकर्षण उसमें उस चीज़ को पाने की इच्छा जगाती है. अगर वो इच्छा पूरी हो जाती है तो मनुष्यआत्मा ख़ुश हो जाता है और पहले से ज़्यादा पाने की इच्छा करने लगता है यानी उसके मन में लालच आ जाता है. अगर उसकी इच्छा पूरी नहीं होती तो उसे गुस्सा आता है. गुस्सा उसके सोचने समझने की शक्ति को ख़त्म कर देता है. इससे उसकी बुद्धि का नाश होने लगता है और ये उसके पतन का कारण बनता है. यानी अगर अनचाही इच्छाओं पर लगाम ना लगाया जाए तो ये मनुष्यआत्मा का सर्वनाश करने की ताकत रखती है. कई बार दूसरों के कारण जब उसकी इच्छा पूरी नहीं होती तो वह उन लोगों से नाराज हो जाता है जो उसके रास्ते में बाधा के रूप में खड़े होते हैं।
पिछले जन्मों से लाए गए वासना यानी (पिछले जन्म में किए गए कर्मों के कारण चित्त में पड़े इंप्रेशन, पसंद-नापसंद और झुकाव) मनुष्यआत्मा की बुद्धि को आदेश देते हैं और मनुष्यआत्मा अपने वर्तमान वासनों के अलावा किसी और चीज़ को देख ही नहीं पाता। मनुष्यआत्मा का आज का व्यवहार और जीवन के प्रति दृष्टिकोण उसके पिछले कर्मों और वासनाओं के प्रभाव में होते हैं। लेकिन वह खुद को इन सब से ऊपर उठा सकता है यदि वह अपनी इंद्रियों को, जो लगाव और घृणा पैदा करती हैं, वश में करना सीख जाए तो. उसे अपनी इंद्रियों का गुलाम नहीं बनने का प्रयास करना चाहिए। बल्कि उसे कार्मेन्द्रियों का मालिक बनने का प्रयास करना चाहिये और यह तबही हो सकता है जब वह खुद को आत्मा मालिक मानकर चले।
मन वासना का भण्डार होता है। स्वार्थी कर्मों और कुछ पाने की इच्छा के प्रति लगाव को त्यागने से वासनाएँ घटने लगती हैं और अहंकार, ‘मैं' की भावना का अस्तित्व ख़त्म हो जाता है.
जब मनुष्य आत्मा के मन में कोई इच्छा होती है तो उसका रज गुण उसे काम करने के लिए यानी एक्शन लेने के के लिए मजबूर करता है। इच्छा-क्रोध-भावना इन तीनों का साथ मिल जाना ही मूल कारण है जो मनुष्यआत्मा के ऊँचें कर्म करने में बाधा डालता है। एक बार जब इच्छा का कीड़ा मनुष्यआत्मा की बुद्धि में चला जाता है, तो वो हलचल पैदा करता है. वो उसके ज्ञान और बुद्धि को ढक देता है क्योंकि इच्छाएँ कभी भी ख़त्म नहीं होतीं। अगर एक ख़त्म होती है तो दूसरे का जन्म हो जाता है. इच्छा से छुटकारा पाने का एक ही रास्ता है जो है हर लगाव या आसक्ति से धीरे-धीरे ख़ुद को दूर कर लेना। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि इच्छा ही पृथ्वी पर मनुष्यआत्मा की सबसे बड़ी दुश्मन है क्योंकि मनुष्यआत्मा अपनी इच्छा और सही फ़ैसले के खिलाफ़ जाकर इच्छा के आदेश पर ही पाप करता है जो उसे बार-बार जन्म और मृत्यु के रूप में भयानक पीड़ा देती है।
इच्छाओं को आसक्ति या लगाव के अनुसार तीन भाग में बाँटा गया है – सत्व यानी जो दिव्य कर्म करने की ओर ले जाए, रजस जो मनुष्यआत्मा को कर्म करने के लिए सक्रीय यानी एक्टिव बनाती है और तमस यानी जो मनुष्यआत्मा को गलत कर्म करने की ओर ले जाती है और उसे आलसी या inactive बनाती है.
सात्विक इच्छाएँ भी हमारे विवेक को ढक सकती है जैसे धुआं आग को ढक देता है. यहाँ धुएँ की परत बहुत पतली होती है इसलिए थोड़ी सी कोशिश से ही इच्छा का धुआं छंट जाता है.
राजसिक गुण में भी बुद्धि पर इच्छाओं की परत जम जाती है जैसे दर्पण पर धूल की परत जम जाती है. यहाँ सत्व गुण की तुलना में इच्छाओं की परत काफ़ी मोटी होती है. जिस तरह धूल की परत के कारण दर्पण में कुछ देखा नहीं जा सकता उसी तरह इच्छाओं की गंदगी की परत को साफ़ करने में ज़्यादा कोशिश की ज़रुरत होती है.
तामसिक गुण में ये परत इतनी मोटी होती है कि मनुष्यआत्मा में पशु के जैसी प्रवृत्ति भी देखने को मिलती है. जिस तरह गर्भ में भ्रूण पूरी तरह से तरल पदार्थ से ढका रहता है और समय पूरा होने के बाद ही वो एक बच्चे में बदलकर गर्भ से बाहर आता है ठीक उसी तरह बुरी इच्छाओं को दूर करने के लिए लंबे समय तक प्रयास करना पड़ता है.
इच्छाओं को पूरी तरह से कभी ख़त्म नहीं किया जा सकता, वो अतृप्त ही रहती हैं. इच्छाएँ सही- गलत, सत्य- असत्य के बीच के फ़र्क करने की मनुष्यआत्मा की क्षमता को ख़त्म कर देती है. एक नासमझ तो इच्छाओं को अपना दोस्त समझता है क्योंकि इच्छाओं से उसकी इंद्रियां संतुष्ट होती हैं. लेकिन एक बुद्धिमान अपने अनुभव से जान जाता है ये इच्छाएँ उसके लिए दुःख के अलावा और कुछ लेकर नहीं आएँगी. वो जानता है कि दुश्मन के रूप में ये इच्छाएँ उसके आध्यात्मिक विकास (spiritual progress) में बाधा पैदा करेंगी.
अगर दुश्मन के छुपने की जगह पता हो तो उसे पकड़ना आसान होता है। भगवान कहते हैं कि इच्छाएँ इंद्रियां, मन और बुद्धि में वास करती है जो मनुष्यआत्मा के अंदर की शांति और हौसले के ऊपर हमला करती है। इन्द्रियाँ बाहरी वस्तुओं से आकर्षित होकर इच्छा को मन तक पहुँचाते हैं. मन बुद्धि के साथ काम करते हुए भोगों के अनुभव में जीने लगता है। इसलिए इच्छा को मन के द्वारा काबू में करना होगा.
श्रीकृष्ण कहते हैं कि इच्छा को मारने का पहला स्टेप है इंद्रियों को नियंत्रित करना। इच्छा बुरी चीज है क्योंकि यह हमें नीच प्रकृति का जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है।
आदि शंकराचार्य ज्ञान को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि – जिस ज्ञान को शास्त्रों और किसी गुरु के माध्यम से प्राप्त किया गया हो उसे परोक्ष ज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान अपने अनुभव से हासिल किया गया हो या आत्म-प्राप्ति (self-realization) से सीखा गया हो उसे - अपरोक्ष ज्ञान कहते हैं । इसलिए इच्छाएँ ज्ञान हासिल करने के रास्ते में बाधा पैदा करती है।
मनुष्य का भौतिक शरीर (physical body) स्थूल, बाहरी और सीमित है। इसकी तुलना में इंद्रियाँ श्रेष्ठ या ऊपर होती हैं क्योंकि वे सूक्ष्म और ज़्यादा आंतरिक होती हैं और उनमें ज्यादा गतिविधि (activity) होती है। इंद्रियों से श्रेष्ठ होता है मन क्योंकि यह इंद्रियों के काम को निर्देशित कर सकता है (क्योंकि यह इंद्रियों के काम को भी शुरू कर सकता है)। मन से श्रेष्ठ बुद्धि होती है क्योंकि इसमें विवेक और चीज़ों के बीच अंतर करने की क्षमता होती है; जब मन संदेह करता है, तो बुद्धि फ़ैसला करती है। लेकिन आत्मा बुद्धि से भी ज़्यादा श्रेष्ठ होती है क्योंकि बुद्धि ख़ुद को प्राकाशित करने के लिए अपनी शक्ति आत्मा से लेती है। आत्मा शरीर में रहने वाली, शरीर, इंद्रियों, मन और बुद्धि की गतिविधियों की साक्षी होती है । श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि मनुष्यआत्मा अपने सत्व गुण को बढ़ाकर और ध्यान (meditation) के माध्यम से इसे प्राप्त कर सकता है। ध्यान की तकनीक हमारी पहचान को शरीर, मन और बुद्धि से हटाकर आत्मा की ओर लगाती है जहां अहंकार मनुष्यआत्मा के पूर्ण नियंत्रण में होता है, जहाँ कोई भी इच्छा मन को बेचैन नहीं कर पाती। इस तरह जीवन की परिस्थियों से भागे बिना या उसे छोड़े बिना गीता हमें जीवन को सही दिशा में मोड़ने या व्यवस्थित (organize) करना सिखाती है।

सीख : इस अध्याय में भगवान् ने मनुष्यआत्मा को ये समझाया कि मनुष्यआत्मा की सभी समस्याएँ तब उत्पन्न होती हैं जब उसका मन इंद्रियों के माध्यम से बाहरी दुनिया के संपर्क में आता है। ये मन का स्वभाव होता है कि वो हमेशा ख़ुशी की तलाश करता रहता है। समझ की कमी के कारण वो इंद्रियों के माध्यम से खुशी हासिल करने की कोशिश करता है और संसार की वस्तुओं की ओर आकर्षित होता है। इसके बजाय, यदि मन को मनुष्यआत्मा के असली स्वरुप यानी आत्म भाव में टिका दिया जाए है तो वो परम आनंद का अनुभव करना शुरू कर देता है।

भगवान् हमें तीनों गुण-सत्व, रजस और तमस से परे जाकर बुद्धि, मन और इंद्रियों के बारे में सचेत होने के लिए कहते हैं। इच्छा का प्रभाव बुद्धि के स्तर तक होता है। जब बुद्धि और मन चेतना यानी consciousness में विलीन हो जाते हैं, तो इच्छाएँ भी ख़त्म जाती हैं। इस अध्याय में भगवान् ने अलग-अलग तरीके से यह दर्शाया है कि हर जीव को अपने कर्तव्य को ठीक से निभाने की ज़रुरत क्यों है. हर कर्तव्य को भगवान को समर्पित करने और सभी इच्छा, लगाव की भावना से मुक्त होकर कर्म करने के लिए भी कहा गया है। मनुष्यआत्मा को ये समझना होगा कि असल में उसका अपना अस्तित्व कुछ भी नहीं है क्योंकि ये शरीर तो आत्मा के बिना हिल भी नहीं सकती और जो भी कर्म होते हैं वो प्रकृति के गुण उससे करवाते हैं। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि मनुष्यआत्मा को किसी भी कर्म को करते समय पसंद-नापसंद के झाँसें में नहीं आना चाहिए क्योंकि यही उसके बंधन का कारण बनता है। उन्होंने साफ़-साफ़ ये भी कहा कि इच्छा सभी बुराइयों की जड़ है और बुद्धि द्वारा मन को नियंत्रित करके इच्छा पर जीत पाई जा सकती है।


Bhagavad Gita (Chapter 3)



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