Bhagavad Gita (Chapter 4) Hindi Summary

Bhagavad Gita (Chapter 4) Hindi Summary

By- Sage Vyasa

Bhagavad Gita (Chapter 4) Hindi Summary

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अध्याय 4 – ज्ञान कर्म संन्यास योग

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श्लोक 1 :

श्रीकृष्ण बोले, “मैंने इस अविनाशी योग को विवस्वान सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा. इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद बहुत काल से यह योग पृथ्वी लोक में लुप्त होने लगा. हे अर्जुन! तुम मेरे भक्त और परम सखा हो इसलिए ये पुरातन योग आज मैं तुम्हें बता रहा हूँ क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है.”
अर्थ : इस श्लोक में श्रीकृष्ण अपने साकार रूप की नहीं बल्कि उस विराट और निराकार स्वरुप की बात कर रहे हैं कि “मैंने ये योग सूर्य से कहा था”. इस श्लोक में ये बताया गया है कि जब सृष्टि की रचना हुई तब से ही ज्ञान ब्रह्मांड में रच-बस गया था. ये ज्ञान अविनाशी और शाश्वत है क्योंकि ये निराकार परमात्मा से आया है जो ख़ुद अविनाशी और शाश्वत हैं. इस योग में ज्ञान और कर्म योग दोनों ही शामिल हैं. इस योग का अस्तित्व सृष्टि के आरंभ से है.
सूर्य यानी प्रकाश, जब ज्ञान का सूर्य उदय होता है तो अज्ञानता का अंधकार मिट जाता है. इसमें विवस्वान सूर्यदेव हैं। मनु प्राचीन समय में नियम या क़ानून बनाने का काम संभालते थे। इक्ष्वाकु क्षत्रियों के पूर्वज हैं, जिनका वंश सूर्य-देव में जाता है। इस योग को परंपरा के माध्यम से राजऋषियों ने जाना लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे ये पृथ्वी लोक से गायब होने लगा. अगर किसी देश के नेताओं के पास इस योग का ज्ञान हो यानी जो जीवन के नैतिक मूल्यों (moral values) के बारे में जानता हो तो उनके माध्यम से ये समाज की जड़ों तक पहुँच जाता है.
ज्ञान की ये धारा सृष्टि के आरंभ से लगातार बह रही थी लेकिन स्वार्थी और अधर्मी लोगों के हाथों में पड़कर इस योग की शिक्षाएँ खोने लगी । गीता के माध्यम से इसे पुनर्जीवित करना ही भगवान् की मंशा है। यहाँ इस योग को गुप्त इसलिए कहा गया है क्योंकि आमतौर पर हर कोई इसके बारे में नहीं जानता और ये केवल वे लोग ही प्राप्त कर सकते हैं जो इसके लिए ख़ुद को तैयार करते हैं यानी आत्मा और शरीर के बीच के फ़र्क को समझते हैं, कर्म के सिद्धांत को समझते हैं क्योंकि ज्ञान पाने के लिए “मैं, और मेरा यानि अहंकार” की भावना को त्यागना पड़ता है तभी ज्ञान का अमृत मनुष्य के भीतर समा सकता है.

श्लोक 2 :

अर्जुन बोले, “हे माधव! आपका जन्म तो अभी हाल का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात कल्प के आरंभ में हो चुका था, तब मैं इस बात को कैसे समूझँ कि आप ने कल्प के आरंभ में सूर्य से यह योग कहा था?”
अर्थ: अर्जुन यहाँ श्रीकृष्ण की बात सुनकर चकित हैं क्योंकि सूर्य का अस्तित्व तो तब से है जब इस सृष्टि की रचना हुई थी लेकिन श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर युग में हुआ था जिसे बीते बहुत लंबा समय नहीं हुआ है , तो फ़िर कैसे उन्होंने सूर्य को ये ज्ञान दिया होगा?

श्लोक 3:

श्रीकृष्ण कहते हैं, “पार्थ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तुम नहीं जानते, किन्तु मैं जानता हूँ. मैं अजन्मा और अविनाशी और सभी जीवों का परमात्मा होते हुए भी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ. हे भारत! जब-जब धर्म की अति हानि होती है और अधर्म की अति वृद्धि होती है तब मैं अवतरित होता हूँ. साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और एक सत्य धर्म की स्थापना करने के लिए मैं हर कल्प में प्रकट होता हूँ.”
अर्थ: अर्जुन के मन में उठे इस सवाल का कारण ये है कि सीमित ज्ञान वाले अर्जुन को लगता है कि श्रीकृष्ण एक साधारण आदमी हैं, न कि सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ परमात्मा।
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अपने कृष्ण रूप की नहीं बल्कि अपने असीमित और परम तत्व की बात कर रहे हैं. भगवान् उसी असीमता के भाव से कह रहे हैं कि “मैं अजन्मा हूँ”. जन्म मरण, आवागमन आत्मा और प्रकृति का हिस्सा होता है और मैं प्रकृति से बिलकुल परे हूँ. मेरा जन्म दिव्य और आलोकिक है? अर्थात मैं सांसारिक मनुष्यों की तरह जन्म नहीं लेता हूँ।
परमात्मा स्वभाव से शाश्वत और अविनाशी हैं क्योंकि ज्ञान, शांति, प्रेम, आनंद, पवित्रता वो गुण हैं जिससे उनका स्वभाव बना है. वो अनंत है और अपरिवर्तनशील है यानी उनमें कभी बदलाव नहीं होता. भगवान् जब पंच तत्वों से बने शरीर को धारण करते हैं तो उसे अवतार कहा जाता है. जब परमात्मा अवतार लेते हैं तो वो प्रकृति के वश में नहीं होते बल्कि वो प्रकृति के तीनों गुणों सत्व, रजस और तमस को अपने वश में करके अवतरित होते हैं.
यहाँ योगमाया का मतलब है अपने आत्म भाव में टिककर कि मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ, इस संसार की माया में उतरना ही योगमाया कहलाता है. भगवान् संसार की माया में साकार रूप में प्रकट होते हैं यानी मनुष्य के शरीर में होते हुए भी वो जागृत अवस्था मतलब soul conscious रहते हैं इसलिए संसार की माया भगवान् को बाँध नहीं पाती.
भगवान् का शरीर में प्रवेश करना और शरीर छोड़ना ख़ुद उन पर निर्भर करता है। लेकिन एक मनुष्य का जन्म और उसकी मृत्यु, कर्म के नियम (law of karma) पर निर्भर करता है। यही अंतर है परमात्मा के अवतरित होने यानि उनके शरीर धारण करने में और एक आत्मा के मनुष्य शरीर को धारण करने में।
माया की शक्ति ( अर्थात – वासना, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार )इस शरीर को धारण की हुई आत्मा को अपने असली स्वरुप को पहचानने से रोकती है। मनुष्य रूप में जन्म लेना किसी भी मनुष्य की इच्छा से नहीं होता या ये उसके वश में नहीं होता। अज्ञानता के कारण मनुष्य जैसे कर्म करता है और जैसी उसकी प्रकृति होती है उस अनुसार वो जन्म-मरण के चक्रव्यूह में फँस जाता है।
लेकिन परमात्मा प्रकृति को नियंत्रित करते हैं और स्वयं अपनी इच्छा से अवतार लेते हैं। वह अपने स्वभाव का उपयोग इस तरह से करते हैं जो उन्हें कर्म के बंधन से मुक्त रखती है क्योंकि परमात्मा हर कर्म निष्काम भाव अर्थात निस्वार्थ भाव से करते हैं और उनमें फल पाने की कोई इच्छा भी नहीं होती इसलिए उनके कर्मों के फल नहीं बनते. यही कारण है कि उन्हें आम मनुष्य की तरह उन कर्मफलों को भोगने के लिए जन्म नहीं लेना पड़ता है.
परमात्मा अवतार भी किसी ना किसी उद्देश्य से लेते हैं. अवतार का मतलब है अपने निराकार रूप से साकार रूप में सामने आना। जब दुनिया में धर्म का नाश होने लगता है, अधर्म का पलड़ा भारी होने लगता है तब परमात्मा को इस लोक में आना पड़ता है ताकि इसे पतन से उठाकर उच्च स्थिति में स्थापित कर सकें। अवतार का मकसद होता है एक नई दुनिया, एक नए धर्म की स्थापना करना।
अवतार लेने के बाद अपने जीवन के माध्यम से परमात्मा मनुष्य को सिखाते हैं कि एक इंसान खुद को जीवन के उच्च स्तर तक कैसे बढ़ा सकता है। अर्थात परमपिता परम शिक्षक और सद्गुरु बनकर जीवन मुक्ति की राह दिखाते भी हैं और उस पर चलना सिखाते भी हैं और वरदानों के द्वारा उसे आसान भी बनाते हैं।

इस श्लोक में धर्म का मतलब है सबके लिए भलाई का भाव । जहाँ औरों की भलाई का भाव नष्ट हो जाता है और केवल “मैं, मेरा” और स्वार्थ जग जाता है वही अधर्म कहलाता है. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जब सत्व गुण खत्म होने लगे और तमस गुण बढ़ने लगे तब पाप और अधर्म बढ़ता है. सत्व गुण अर्थात शांति, पवित्रता, आत्म-ज्ञान, आत्मिक सुख, आत्मिक आनंद, आत्मिक प्रेम और आध्यात्मिक शक्तियां और तमस गुण अर्थात काम-वासना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा, नशा करना, आलस आदि असुरी गुण.
जब मनुष्य अपनी आज़ादी का गलत इस्तेमाल करने लगता है तो भगवान् चुप नहीं रहते बल्कि ख़ुद इसका भार अपने ऊपर ले लेते हैं। वो अपने अवतार के द्वारा चीज़ों को सही रास्ते पर लेकर आते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस दुनिया में हर कल्प में उनका अवतार कई अहम उद्देश्यों के लिए होता है यानी :
1. अच्छे लोगों की रक्षा के लिए: जो लोग सच्चाई और धर्म का पालन करते हुए जीवन जीते हैं, उनकी रक्षा करने के लिए उन्हें आना पड़ता है. ये वो मनुष्य होते हैं जो औरों की सेवा करने के लिए तैयार रहते हैं. ऐसे लोग स्वार्थ, क्रोध, घृणा, वासना और लालच से मुक्त होते हैं और अपना जीवन ईश्वर को समर्पित करते हैं।
2. पाप के विनाश के लिए: अधर्म का जीवन जीने वालों में गलत प्रवृत्ति को खत्म करने के लिए भगवान् अवतार लेते हैं. यहाँ नाश का मतलब किसी को मारना नहीं है बल्कि लोगों के मन में बसी स्वार्थी इच्छाओं और बुराइयों को ख़त्म करना है. पाप का मतलब है जो लोग समाज के कानून तोड़ते हैं, जो बेईमान और लालची होते हैं, जो दूसरों को तकलीफ़ पहुँचाते हैं, जो ताकत का इस्तेमाल कर दूसरे की संपत्ति पर कब्जा कर लेते हैं आदि ये सभी पाप कर्म कहलाते हैं.
3. धर्म की स्थापना करने के लिए: जब धर्म की रक्षा की जाती है और परमात्मा सत्व गुणों को आत्मा में धारण कराते हैं तब दुष्टता का , दुष्ट प्रवृत्तियों का नाश हो जाता है, तो समाज में धर्म की एक बार फ़िर से स्थापना हो जाती है और समाज धर्म के अनुसार जीने लगता है.

श्लोक 4:

श्रीकृष्ण, “हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं- वे केवल धर्म को स्थापन करने और संसार का उद्धार करने के लिए ही अपनी योगमाया से प्रकट होते हैं। परमेश्वर के समान दयावान, प्रेमी और पतितपावन दूसरा कोई नहीं है, ऐसा समझकर जो मनुष्य परमेश्वर का अनन्य प्रेम से लगातार चिन्तन करता हुआ आसक्ति के बिना संसार में जीता है, वही उनको तत्व से जानता है। वो इस शरीर को त्याग कर फिर जन्म नहीं लेता , किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है.
पहले भी, जिनके राग, भय और क्रोध पूरी तरह नष्ट हो गए थे और जो मुझ में अनन्य प्रेम से स्थित रहते थे, ऐसे बहुत से भक्त ज्ञान के तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं. हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस रूप में भजता है मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ. इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल चाहने वाले लोग देवताओं की पूजा करते हैं क्योंकि उन्हें कर्मों से मिलने वाले फल बड़ी जल्दी मिल जाते हैं.”
अर्थ: इस संसार में अपने अवतार के कारणों को बताने के बाद, भगवान ने कहा कि वे मनुष्य जो इस महान सत्य को जानते हैं कि कभी जन्म ना लेने वाले परमात्मा जन्म और मृत्यु से परे हैं और वो धर्म की स्थापना के लिए कर्म करने में सक्रिय रूप से लगे हुए हैं- वो आत्म-ज्ञान (self-knowledge) की रौशनी से भर जाते हैं, परम सत्य को जान जाते हैं। इस तरह वह दुनिया में जन्म और मृत्यु के चक्र को पार कर लेते हैं और ब्रह्म को प्राप्त करते हैं।
अवतार का उद्देश्य केवल दुनिया की व्यवस्था को बनाए रखना नहीं है, बल्कि मनुष्य को उनके स्वभाव में परिपूर्ण बनने में मदद करना भी है।
इसके लिए मनुष्यों को:
• सांसारिक वस्तुओं के लिए लगाव का त्याग करना होगा
• इच्छा से मुक्त हो जाना होगा
• स्वार्थ से मुक्त होना होगा
मनुष्य को इस बात को समझना होगा कि वह निरंतर, अविनाशी, शाश्वत आत्मा है और बदलाव केवल शरीर का एक गुण है।
जब कोई मनुष्य आत्म-विकास के इस चरण में पहुँच जाता है तो वह निडर हो जाता है और हर जगह उस पवित्र आत्मा को देखने लगता है जो उसके अंदर भी वास करती है और ऐसी अवस्था में उसके अंदर क्रोध पैदा नहीं होता। वह उसी भाव में लीन हो जाता है और उसके प्रति पूर्ण समर्पित हो जाता है। इस प्रकार वह ज्ञान की अग्नि से शुद्ध होकर भगवान की शरण लेता है।
यहाँ ज्ञान को अग्नि के रूप में बताया गया है। जैसे अग्नि सब कुछ जला देती है, ज्ञान का प्रकाश भी सभी अव्यक्त प्रवृत्तियों, इंप्रेशन, इच्छाओं, वासनाओं आदि को पूरी तरह से हटा देता है और मनुष्य के मन को शुद्ध बनाता है।
जिस मनुष्यात्मा के जैसे भाव होते हैं उसके पास वही वापस लौटकर आता है. मनुष्य जिस भी रूप में भगवान की पूजा करता है, भगवान उस रूप में उसे दिखाई देते हैं। अलग-अलग देवता, अवतार, फ़रिश्ते परमात्मा के अलग-अलग रूप हैं जिनके माध्यम से वो ख़ुद को प्रकट करते हैं। अथर्ववेद कहता है "एकं ज्योति बहुदा विभाति" – यानी एक प्रकाश ही अलग-अलग रूपों में प्रकट होती है।
मनुष्य इस दुनिया में देवताओं की पूजा इसलिए करते हैं क्योंकि वे अपने कर्मों के फल का सुख तुरंत भोगना चाहते हैं। लेकिन उन कर्मों के फल को देने वाला मैं ही हूँ, वे यह नहीं जानते।
जिस मनुष्य की जिस देवी- देवता में श्रद्धा होती है, भक्ति के द्वारा मिले फल प्राप्ति के कारण, उसकी श्रद्धा और गहरी हो जाती है। वे और ज़्यादा भावना से देवी-देवताओं की भक्ति करने लग जाते हैं। लेकिन जो मनुष्य मेरे असली पहचान को जान जाता है, साधना के द्वारा मेरे ही सत्य स्वरूप का स्मरण करते हुए अपने विकारों को भस्म करने की कोशिश करता है, जिसके राग, द्वेष क्रोध वासना आदि ख़त्म हो गए हैं और जो मुझ एक के ही प्रेम में मगन रहता है वह मुझे पा लेता है।

श्लोक 5:

श्रीकृष्ण, “ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के अनुसार मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार इस सृष्टि की रचना करने वाला होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान. कर्मों के फल में मेरी इच्छा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म बाँध नहीं सकते , - इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता. पहले मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही कर.”
अर्थ: इस श्लोक में मनुष्य के अलग-अलग स्वभाव और प्रवृत्तियों के बारे में बताया गया है। सभी मनुष्य एक जैसे स्वभाव के नहीं होते क्योंकि उनमें गुण अलग-अलग मात्रा में होते हैं। हर मनुष्य में चारों गुण होते हैं लेकिन कोई एक गुण सबसे ज़्यादा प्रबल होता है.
जाति व्यवस्था (caste system) मूल रूप से मानव समाज के विकास के लिए बनाई गई थी। लेकिन बाद में समाज द्वारा इसका गलत इस्तेमाल होने लगा, जिसने इसका गलत अर्थ निकालते हुए इसे गुणों के नहीं बल्कि जन्म के आधार पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
स्वभाव और गुणों के आधार पर पूरी मानव जाति को चार जातियों या वर्णों में बाँटा गया, जैसे कि पेशेवर लोग (professional), व्यापारी (merchant), किसान और मजदूर। समाज के आम लोगों की भलाई के लिए हर वर्ग उतना ही महत्वपूर्ण और आवश्यक है जितना कि दूसरे।
इस तरह चार जातियाँ बनी:
1. ब्राह्मण - जहाँ सत्व गुण (पवित्रता, अच्छाई आदि) विचारों और कर्म में प्रधान होते हैं। इन लोगों में कुछ ना कुछ जानने की इच्छा होती है, इन्हें ज्ञान पाने की इच्छा होती है. ये किसी ना किसी खोज में लगे रहते हैं.
2. क्षत्रिय - जहाँ रजस गुण (साहस, वीरता आदि) विचारों और कर्मों में प्रबल होते हैं। इन्हें शक्ति, पॉवर की तलाश रहती है. इन्हें बल पाने की इच्छा होती है.
3. वैश्य - जहाँ रजस और तमस गुण ज़्यादा प्रभाव डालते हैं. इन्हें धन पाने की ज़्यादा इच्छा होती है.
4. शुद्र - जहाँ तमस गुण अकेले प्रधान होता है।
माया के दृष्टिकोण से केवल भगवान् ही चार जातियों के निर्माता हैं। माया ही वो कारण है जिसकी वजह से दुनिया में हर चीज़ होती है। लेकिन क्योंकि माया का भगवान् से अलग होकर कोई अस्तित्व नहीं है, इसलिए भगवान् को निर्माता (creator) कहा जाता है।
कर्म भगवान् को बाँध नहीं सकते क्योंकि भगवान् पूरी तरह से अधंकार से मुक्त होते हैं. इसके अलावा उनमें फल पाने की कोई चाह नहीं होती. भगवान् तो निःस्वार्थ हैं और निस्वार्थ कर्म बाँधते नहीं बल्कि मुक्त करते हैं इसलिए मनुष्यों की तरह भगवान् के कर्मों के फल नहीं बनते और उन्हें दोबारा जन्म भी नहीं लेना पड़ता। जो कोई भी अपने उस आत्म तत्व को परम तत्व भगवान के रूप से जान जाता है, वह कर्म और उसके फल के प्रति लगाव से मुक्त हो जाता है, वह कर्म से बंधा हुआ नहीं रहता और न ही उसका संसार में फ़िर से जन्म होता है।
तनाव और इच्छा उस मन में आते हैं जहाँ अहंकार भरा होता है, जो मन और बुद्धि के माध्यम से कर्म करता है। लेकिन जिसने अपनी पहचान और अहंकार को त्याग दिया और ख़ुद को आत्मा के रूप में पहचान लिया उस पर बाहरी दुनिया में किए गए कर्म का कोई असर नहीं होता। इसलिए अर्जुन को अपना कर्तव्य करने के लिए कहा गया जैसे उनके पूर्वजों राजा जनक और अन्य लोगों ने किया था।

श्लोक 6:

श्रीकृष्ण, “कर्म क्या है? और अकर्म क्या है? इसका फ़ैसला करने में बुद्धिमान भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए वह कर्मतत्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू कर्म बंधन से (जन्म-मरण के चक्र से) मुक्त हो जाएगा. कर्म, अकर्म और विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है.
जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान और योगी कहलाता है जो समस्त कर्मों को करने वाला है.”
अर्थ: कर्म तीन प्रकार के होते हैं : कर्म, अकर्म और विकर्म. कर्म वो होता है जो मनुष्य के अंदर से उठता है यानी उसके अंदर एक गहरी इच्छा पैदा होती है और उसे वो मन, बुद्धि, इंद्रियों के माध्यम से करता है. कर्म का मतलब है. अपनी सूक्ष्म इंद्रियों और अपनी शरीर की कर्मेन्द्रियों के द्वारा कर्म करना जैसे सोचना, बोलना, चलना वगैरह।
दूसरी ओर,अकर्म का मतलब है शरीर में कोई हलचल ना होना या शांत बैठना. जब मनुष्य अंदर से ठहराव में हो, शांत हो उसे अकर्म की अवस्था कहते हैं. जब मनुष्य अपने आत्म भाव से जुड़ा होता है तो वो अकर्म की अवस्था में होता है. इस अवस्था में उसके मन में कोई इच्छा जन्म नहीं लेती क्योंकि वो तो अपने आत्म भाव में मगन हो जाता है.
इस भाव से किए गए कर्म उसे बाँधते नहीं बल्कि वो उसे मुक्त करने की प्रक्रिया बन जाते हैं. क्योंकि उसके मन में इच्छा नहीं होती इसलिए उसे फलों की इच्छा भी नहीं होती. इसमें मनुष्य कर्तव्य की भावना से कर्म करता है.

विकर्म का मतलब होता है उलटे या विपरीत कर्म करना. ग्रंथों में इसे निषिद्ध कर्म भी कहा जाता है. ऐसे कर्म मनुष्य के पूरे जीवन को बिखेरने का काम करते हैं, उसके मन की शांति को नष्ट कर देते हैं, उसमें शक भर देते हैं, जिससे उसका शरीर खराब होने लगता है. किसी भी मनुष्य को पीड़ा या तकलीफ़ पहुँचाना, उसे दुखी करना ये सब विकर्म कहलाते हैं. ऐसे कर्म केवल स्वार्थ की भावना और ख़ुद की इच्छा पूरी करने जैसे भाव पर टिके होते हैं.
भगवान यहाँ अर्जुन को बिना किसी लगाव के कर्म करने के लिए कह रहे हैं। लेकिन असल में कर्म क्या है और अकर्म क्या है, यह जाने बिना मनुष्यात्मा के लिए अपना कर्म करना मुश्किल हो जाता है. इसलिए भगवान अर्जुन से कहते हैं कि वो उन्हें कर्म का असली मतलब समझाएँगे ताकि अर्जुन ऐसे कर्मों को समझ सके, जो लगाव की भावना, कर्ता की भावना और फल की इच्छा से मुक्त होता है।
मनुष्य का जीवन ऐसे पलों से भरा रहता है जब वो कर्म करता है और कई बार कर्म नहीं भी करता. लेकिन अगर कर्म ना किया जाए तो उन्नति संभव नहीं है. कर्म करते रहना ही मनुष्य का निर्माण करती है और ये इस बात पर निर्भर करता है कि वो किस तरह के कर्म कर रहा है. भगवान् यहाँ कर्म का एक और मतलब समझाते हुए कहते हैं कि कर्म को रचनात्मक (constructive) यानी निर्माण करने वाला और विनाशकारी (destructive) के रूप में बताया. यहाँ रचनात्मक एक्शन को कर्म कहा गया है जो मनुष्य के विकास में योगदान करते हैं. विनाशकारी कर्म ऐसे कर्म हैं जो मनुष्य को बर्बादी की ओर ले जाते हैं और शास्त्र इसकी निंदा करते हैं, इसे विकर्म कहा गया है.
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विकर्म से बचने, कर्म करने और पूरी तरह से अकर्म में रहने की सलाह दी. श्री भगवान कहते हैं कि अगर कर्मों को समझना है तो कर्मों के पीछे की मंशा या इच्छा को देखना चाहिए। अगर मंशा शुद्ध है तो कर्म भी महान होंगे और अगर मंशा अशुद्ध है तो कर्म भी पाप कर्म बन जाएँगे।
कर्म में अकर्म देखना: इसका मतलब है कर्म करते हुए भी ख़ुद को अकर्ता मानना. यहाँ कर्ता भाव के साथ कर्म नहीं होता. केवल नासमझ ही ख़ुद को सक्रिय (एक्टिव) मानता है। लेकिन एक बुद्धिमान कर्म करते हुए भी ख़ुद को अकर्ता मानता है क्योंकि वो जानता है कि ये कर्म तो इंद्रियों, शरीर और मन के द्वारा उसके गुण उससे करवा रहे हैं.
अकर्म में कर्म देखना: इसका मतलब है अकर्ता भाव में होकर ख़ुद को परमात्मा से जोड़ना और ये मानना कि यहाँ जो कुछ भी हो रहा है मुझ से हो रहा है, एक नासमझ को लगता है कि उसका शरीर, इंद्रियां, मन कर्म नहीं करते यानी वो कोई एक्शन नहीं करते लेकिन समझदार जानते हैं कि ये सभी एक्टिव होते हैं, कर्म करते हैं। इसलिए वह उस बात में कर्म को देख लेता है जिसे नासमझ अकर्म समझते हैं।
इसी तरह, एक समझदार अकर्म में कर्म देखता है; वह जानता है कि अकर्म भी एक तरह का कर्म है और वो शरीर से संबंधित है।आत्मा कर्म और अकर्म से परे है।
वह जो कर्म और अकर्म का मतलब जान जाता वो मनुष्यों में बुद्धिमान है; वह योगी है। वह सभी कर्म बिना बंधे हुए करता है; वह कर्म के बुरे परिणाम से मुक्त हो जाता है जो दिखाता है कि उसने सब कुछ हासिल कर लिया है।

कर्म में अकर्मता-भाव, नैराश्य-सुख, यज्ञ की व्याख्या

श्लोक 7:

श्रीकृष्ण, “जिसके सारे कर्म बिना कामना और इच्छा के होते हैं और जिसके सारे कर्म ज्ञान-योग की अग्नि द्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी ब्राह्मण कहते हैं. जो मनुष्य कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का पूरी तरह त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में तृप्त रहता है, वह कर्मों को करता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता. जिसने मन और इन्द्रियों सहित शरीर को जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित मनुष्य केवल शरीर-संबंधी कर्म करता हुआ भी पापों को प्राप्त नहीं होता.
जो बिना इच्छा के अपने आप मिल जाने वाले फल से संतुष्ट रहता है, इसमें इर्ष्या का भाव नहीं है, जो सुख दुःख के द्वन्द से मुक्त हो गया है, जो सिद्धि-असिद्धि में सम रहने वाला कर्मयोगी कर्म करते हुए भी उनसे नहीं बँधता. जिसकी आसक्ति पूरी तरह नष्ट हो गई है, जो शरीर के अभिमान और ममता से मुक्त हो गया है, जिसके मन में ज्ञान की स्थापना हो जाती है, जो अकेले त्याग के लिए कर्म करता है, उसके कर्म दिव्य कर्म बन जाते हैं वो आम नहीं रहते।”
अर्थ: श्रीकृष्ण का कहना है कि वह मनुष्य संत है जिनकी बाहरी दुनिया में कोई भी कामनाएँ नहीं होतीं और ना ही वे विचार आते हैं जो इच्छाओं को जन्म देने का कारण बनते हैं। जब कोई समाज में इस तरह कर्मों को करता है, तो वो वास्तव में कोई कर्म नहीं करता क्योंकि वह आत्म ज्ञान के माध्यम से कर्म और अकर्म के बारे में सच्चाई जान जाता है।
आत्म ज्ञान एक ऐसी अग्नि है जो सभी प्रकार के कर्मों को शुद्ध कर कर्म के बंधन से मनुष्य को मुक्त करती है। यहां तक कि जब कोई मनुष्य इस भाव से दुनिया में कर्म करता है, तो वह केवल भगवान् की इच्छा मानकर कर रहा होता है, न कि अपनी इच्छा मानकर।
मनुष्य संसार की चीज़ों को इकठ्ठा कर उस पर आश्रित हो जाता है. संसार की चीज़ें मनुष्य को संतुष्ट या तृप्त नहीं कर सकती क्योंकि सब कुछ समय के साथ बदल जाता है. इन चीज़ों का साथ छूट जाता है. इसलिए मनुष्य को अपने अंदर उस आत्म भाव में आश्रय लेना चाहिए क्योंकि वो कभी उसका साथ नहीं छोड़ता. बाहर की चीज़ें मनुष्य को अंदर से तृप्त नहीं कर सकती. इसलिए उससे जुड़ो जो लगातार तुम्हारे साथ बना रहता है. बाहर किसी पर नहीं बल्कि ख़ुद पर डिपेंडेंट रहो, ख़ुद को अंदर से मज़बूत करो.
जब एक मनुष्य पूरी तरह से इच्छा का त्याग कर अपने शरीर और मन को कंट्रोल में कर लेता है और अपनी इकट्ठा की हुई सभी चीजों को त्याग कर देता है, उसका अहंकार ख़त्म हो जाता है। जब अहंकार ख़त्म हो जाता है , तो कर्म उसके मन और बुद्धि पर कोई प्रभाव और इम्प्रैशन नहीं छोड़ते इसलिए वो किसी फल को जन्म नहीं देते। इस तरह के कर्म उसे बाँधते नहीं हैं क्योंकि ख़ुद को कर्मों का कर्ता नहीं मानता , बल्कि केवल प्रभु की इच्छा व्यक्त करने का एक साधन मानता है। इस तरह मनुष्य आत्मा ईश्वरीय शक्ति का एक शुद्ध ज़रिया बन जाती है।
जो मनुष्य कर्म करने से उसे जो भी फल मिला वो उससे संतुष्ट है, जो कम या ज़्यादा की भावना से दुखी नहीं होते, जो सुख दुःख से बेचैन नहीं होते , सफलता और असफलता को समान भावना से स्वीकार करते हैं और उससे विचलित नहीं होते, जो हर परिस्थिति में समान यानी बैलेंस्ड रहते हैं और जो कर्म पर फोकस करते हैं उसके फल पर नहीं, ऐसा मनुष्य हर कर्म करते हुए भी उसके बंधन से हमेशा मुक्त रहता है.
मनुष्य को बाहरी दुनिया से अपना लगाव हटाकर उसे अपने अंदर मोड़ देना चाहिए क्योंकि लगाव बाहर की तरफ होता है जो मनुष्य को अपने अंदर की यात्रा नहीं करने देती. इसलिए लगाव से दूर रहो क्योंकि मनुष्य बाहर से जब तक जुड़ा रहेगा तब तक उसका मन हिलता रहेगा क्योंकि लगाव अहंकार और गुस्से को जन्म देती है जो उसके बंधन का कारण बनती है.
इसलिए मनुष्य को “मैं और मेरा” से जुड़ी हर चीज़ को छोड़ देना चाहिए यानी body conciousness से हट कर soul consciousness में आ जाना चाहिए तभी उसके मन में ज्ञान का प्रकाश उतर सकता है और सिर्फ़ तब वो त्याग की भावना से कर्म कर पाता है जिससे उसके कर्म मन में कोई इम्प्रैशन छोड़ने के लायक नहीं रहते और वो उसे मुक्ति की ओर ले जाते हैं.

फलसहित अलग-अलग यज्ञों का वर्णन

श्लोक 8:

श्रीकृष्ण, “ जो मनुष्य परमात्मा के भाव में पूरी तरह लीन रहता है, उसे अपने आध्यात्मिक कर्मों के योगदान के कारण अवश्य ही भगवद्धाम की प्राप्ति होती है क्योंकि उसमें हवन आध्यात्मिक होता है और आहुति भी आध्यात्मिक होती है. कुछ योगी अलग-अलग तरह के यज्ञों द्वारा देवताओं की पूजा करते हैं और कुछ परब्रह्म रुपी अग्नि में आहुति डालते हैं. इनमें से कुछ योगी अपनी सभी क्रियाओं और इंद्रियों को मन के नियंत्रण रुपी अग्नि में स्वाहा कर देते हैं तो दूसरे लोग इंद्रियों के विषयों को इंद्रियों की अग्नि में स्वाहा कर देते हैं. वहीँ कुछ लोग, जो मन और इंद्रियों को वश में करके आत्म-ज्ञान पाना चाहते हैं, सभी इंद्रियों और प्राणवायु के कर्मों को संयमित मन रुपी अग्नि में आहुति कर देते हैं.”
अर्थ: इस श्लोक में अलग-अलग यज्ञों यानी आत्म भाव में टिक जाने के बारे में बताया है. भगवान् ने दो तरह के योगियों के बारे में बताया है – ज्ञान योगी और कर्म योगी. ज्ञान योगी बाहर कोई कर्म नहीं करते बल्कि अपने आत्म भाव में रहकर उस ज्ञान को अनुभव करते हैं. ज्ञान योगी जानने की इच्छा रखते हैं. कर्म योगी बाहरी दुनिया में किसी कर्म को कर के ज्ञान हासिल करते हैं.
ज्ञान को प्राप्त करने के बाद, एक मनुष्य हर चीज में आत्मा को देखता है और क्योंकि आत्मा परमात्मा का अंश है इसलिए उसे हर जगह परमात्मा नज़र आने लगते हैं. वह कर्म के हर भाग में ब्रह्म को देखता है: यानी निम्मित, कर्ता, फल और कर्म सब में उसे परमात्मा ही दिखाई देते हैं। वो जान जाता है कि सृष्टि में सब कुछ ब्रह्म है. वो किसी से अलग नहीं क्योंकि सब कुछ ब्रह्म ही तो है. एक नासमझ ख़ुद को कर्ता मानता है लेकिन ज्ञानी के लिए सब कुछ ब्रह्म है। ब्रह्म का ज्ञान सभी द्वंद्वों को दूर कर देता है। इसलिए ब्रह्म को जानने वाले द्वारा किए गए कर्म उसे बाँध नहीं सकते।
देव यज्ञ- कुछ लोग किसी विशेष देवता की कृपा पाने के लिए उनकी पूजा करते हैं यानी वो भगवान् की पूजा द्वारा परमात्मा तक पहुंचना चाहते हैं. भगवान् यानी पॉजिटिव एनर्जी. पूजा करते-करते उनका मन पवित्र होने लगता है जिससे वो आत्म भाव में टिकने लायक हो जाते हैं.
ब्रह्म योग – इसमें मनुष्य अपना मन, विचार, इच्छाएँ आदि सब परमात्मा में लगा देता है. जब किसी मनुष्य के कर्म उसके स्वार्थ और जरूरतों को पूरा करने के लिए नहीं बल्कि समाज की सेवा के लिए होते हैं, तो दुनिया में रहते हुए भी उसे उससे कोई लगाव नहीं होता है। यह त्याग उन लोगों द्वारा किया जाता है जिन्होंने अपने सभी कर्मों से इच्छा हटाकर ख़ुद को आत्मा के ज्ञान में टिका दिया है।
ब्रह्म को शास्त्रों में चेतना, ज्ञान और consciousness के रूप में बताया गया है जो समय और कालचक्र से परे है।संयम की अग्नि में सुनने की शक्ति और इंद्रियों की आहुति देना यानी sense organs को कंट्रोल करना: कुछ मनुष्य इंद्रियों को आत्म-नियंत्रण (कंट्रोल) की आग में अर्पित करते हैं ताकि इंद्रियों की ताकत कम हो जाए और वो अपने अंदर की शांति महसूस कर सकें। इसका मतलब है कि अगर इन्द्रियाँ कुछ गलत देख रही है, सुन रही है, चाह रही है तो उससे उन्हें हटाकर अपने अंदर की ओर मोड़ना. ऐसा करने से मनुष्य अपनी इंद्रियों के मालिक हो जाते हैं और इन्द्रियाँ उनके क़ाबू में हो जाती हैं.
इसके बाद जैसा वो चाहते हैं इन्द्रियाँ सिर्फ़ वहीँ जाती हैं, वही देखती, सुनती, करती हैं जो उचित है. जितना ज़्यादा हम सेंस organs को संतुष्ट करते हैं, उतना ही वे और भी ज़्यादा माँगने लगते हैं और ये एक अंतहीन सिलसिला बन जाता है। इसलिए परम शांति को अनुभव करने के लिए इन्द्रियों को आत्म-नियंत्रण के ज़रिए वश में करना ही इकलौता तरीका है। यह आत्म नियंत्रण का रास्ता है जो यज्ञ कहलाता है। आत्म नियंत्रण का हर तरीका जहाँ मनुष्य परम आनंद के लिए अहंकार और भोग का त्याग कर देता है और वासनाओं को छोड़ देता है उसे बलिदान या आहुति कहा जाता है।
इंद्रियों की अग्नि में शब्दों और sense ऑब्जेक्ट की आहुति देना यानी sense organs जिनसे आकर्षित होती हैं उन पर कंट्रोल करना : इस तकनीक में जो चीज़ें इंद्रियों को लुभाती हैं उन पर कंट्रोल किया जाता है नाकि इंद्रियों पर यानी मनुष्य को जो दिख रहा है, जो उसे सुनाई दे रहा है उसका उस पर कोई प्रभाव होना बंद हो जाता है. इसमें बाहर की चीज़ों का मनुष्य पर असर होना बंद हो जाता है. इसमें इंद्रियों की अग्नि में संसार की जो चीज़ें इंद्रियों को आकर्षित करती हैं उन्हें आहुति की तरह अर्पित किया जाता है और कामुक भावनाएं आध्यात्मिक भावना में बदल जाती हैं।
यहाँ दो बिलकुल अलग और विपरीत तरह के त्याग के बारे में बताया गया है। एक में इंद्रियों पर कंट्रोल किया जा रहा है और दूसरे में इंद्रियां सब देख रही है, सुन रही है पर उसका मनुष्य पर कोई असर नहीं होता क्योंकि सेंस ऑब्जेक्ट के प्रति उसके भाव समान हो जाते हैं. अलग-अलग होने के बाद भी दोनों का एक ही उद्देश्य है यानी मन की शुद्धि।
ईश्वर को बेहतर तरीके से समझने के लिए अहंकार और इंद्रियों पर नियंत्रण करना , इसे आत्म-संयम योग कहा जाता है। प्राण, ज्ञानेंद्रीयों (organs of senses), कर्मेंद्रीयों (organs of action) के साथ-साथ इंद्रियों की इच्छाओं को ज्ञान से जन्मी आग में त्याग दिया जाता है यानी मैडिटेशन के ज़रिए। यहां बताया गया है कि सभी गतिविधियों (activity) से मन हटाकर, मनुष्य मन को आत्मा पर लगाता है।

श्लोक 9:

श्रीकृष्ण, “कठोर व्रत अंगीकार करके, कुछ लोग अपनी संपत्ति का त्याग करके, कुछ कठिन तपस्या द्वारा, कुछ अष्टांग योग की पद्धति द्वारा दिव्य ज्ञान में उन्नति करने के लिए वेदों को पढ़कर बुद्धिमान बनते हैं. दूसरे लोग भी हैं जो समाधि मे लीन रहने के लिए श्वास को रोके रहते हैं (प्राणायाम). कुछ योगी कम भोजन करके प्राण की प्राण में आहुति देते हैं. ये सभी यज्ञ करने वाले यज्ञों का अर्थ जानने के कारण पाप कर्मों से मुक्त हो जाते हैं और यज्ञ के फल रुपी अमृत को चखकर परम दिव्य आकाश की ओर बढ़ जाते हैं.
हे अर्जुन! जब यज्ञ के बिना मनुष्य इस लोक में या इस जीवन में सुख से नहीं रह सकता, तो फ़िर अगले जन्म में कैसे रह सकेगा? ये अलग-अलग यग्य वेदों के अनुसार हैं और ये अलह-अलग तरह के कर्मों से उत्पन्न हैं. इन्हें इस रूप में जानने पर तुम मुक्त हो जाओगे. द्रव यग्य से ज्ञान यग्य श्रेष्ठ है. हे पार्थ! सारे कर्म योग ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं.”
अर्थ: इस श्लोक में अलग-अलग तरह के यज्ञ बताए गए हैं जिसके माध्यम से मनुष्य समर्पण करने की कोशिश करता है.
द्रव्य यज्ञ: समाज की सेवा में समर्पण की भावना से ईमानदारी से कमाए गए पैसों का दान करना द्रव्य यज्ञ कहलाता है। पैसे में प्रेम, दया, सहानुभूति और स्नेह भी शामिल हैं।
तपो यज्ञ: समर्पण की भावना से भगवान को तपस्या का जीवन अर्पित करना ताकि मनुष्य को थोड़ा आत्म नियंत्रण (self-control) हासिल हो सके तपो यग्य कहलाता है.
योग यज्ञ: योग का मतलब है जीवन को एक ऊँचें स्तर पर ले जाने की कोशिश करना; इसमें साँस पर नियंत्रण (breadth control) और दुनिया की चीज़ों से मन को हटाना, जैसे अभ्यास शामिल हैं।
स्वाध्याय यज्ञ: इसका मतलब है शास्त्रों को पढ़ना और समझना, जिसके बिना आध्यात्मिक साधनाओं में कोई प्रगति संभव नहीं है। इसका मतलब अपने मन के अंदर झाँककर विचार करना भी है।
ज्ञान यज्ञ: इसका मतलब है ख़ुद के द्वारा अनुभव किए गए ज्ञान से जो प्रकाश यानी अग्नि पैदा होती है उसमें अपनी अज्ञानता को जला देना। ये ध्यान (meditation) के माध्यम से किया जाता है.
आत्म-विकास के इन सभी पाँच तरीकों का अभ्यास केवल वही कर सकता है जो अपनी कोशिश में ईमानदार है और लगन के साथ लगा हुआ हो।
श्रीकृष्ण ने प्राणायाम को आत्म-नियंत्रण की एक और तकनीक के रूप में समझाया है। प्राणायाम तीन प्रोसेस में होते हैं:
पुरका: इसमें साँस अंदर भरना होता है
रेचका: इसमें साँस को बाहर निकाला जाता है
कुंभका: इसमें कुछ समय के लिए साँस को रोककर रखा जाता है
प्राणायम के माध्यम से जीवन की गतिविधियों (activity) को मनुष्य के पूरे कंट्रोल में लाया जा सकता है ताकि मनुष्य आत्म ज्ञान हासिल करने के लिए बाहरी दुनिया से अपना मन हटाने की क्षमता हासिल कर सके।
इसके बाद भगवान् ने खानपान के माध्यम से समझाने की कोशिश की है. कुछ मनुष्य ऐसे भी हैं, जो अपने खानपान को systematic ढ़ंग से मैनेज कर ख़ुद पर पूरा कंट्रोल करना सीख जाते हैं। जो लोग इन तकनीकों को अपनाने में क़ामयाब होते हैं, वे organs of action यानी कर्मेंद्रीयों के function को कमजोर कर देते हैं और इस तरह उनका उतावलापन और भूख कंट्रोल में आ जाता है जिससे आत्म ज्ञान को हासिल करने के लिए मन फोकस कर सकता है।
इन सभी यज्ञ तकनीकों में आत्म-प्रयास (self-effort) एक कॉमन फैक्टर है। यज्ञ केवल मन और बुद्धि को बेहतर ढ़ंग से फोकस करने का प्रोसेस है जिससे ध्यान (meditation) करना आसान हो जाता है। ध्यान (meditation) इकलौता रास्ता है जिसके माध्यम से अहंकार का नाश होता है और आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ा जा सकता है।
श्रीकृष्ण बताते हैं कि ज्ञान यज्ञ यानी ज्ञान की अग्नि में हमारी अज्ञानता को जला देना सबसे उत्तम है क्योंकि सांसारिक वस्तुओं का त्याग केवल सांसारिक फलों को पैदा करते हैं जबकि आत्मा का ज्ञान इच्छा को ख़त्म करता है और इच्छा ख़त्म होने से फल नहीं बनते जो मनुष्य को मुक्त कर देता है.

ज्ञान की महिमा तथा अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा

श्लोक 10:

श्रीकृष्ण, “तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो, विनम्रता से उनसे सवाल पूछो और उनकी सेवा करो. उस परम तत्व को जानने वाले वो ज्ञानी जन तुम्हें ज्ञान देंगे क्योंकि उन्होंने ख़ुद उसे अनुभव किया है. उनसे ज्ञान मिल जाने के बाद तुम फ़िर कभी इस तरह मोह में नहीं घिरोगे क्योंकि इस ज्ञान के द्वारा तुम देख सकोगे कि सभी जीव परमात्मा के अंश हैं अर्थात वे सब मेरे हैं.
अगर तुम्हें सभी पापियों में से भी सबसे बड़ा पापी समझा जाए तब भी तुम दिव्य ज्ञान के नाव में बैठकर दुःख के सागर को पार करने में समर्थ हो जाओगे. जैसे जलती हुई अग्नि इंधन को भस्म कर देती है उसी तरह हे अर्जुन! ज्ञान रुपी अग्नि कर्मों के समस्त फलों को जला डालती है. इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला और कुछ नहीं है. उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा मन से शुद्ध हुआ मनुष्य अपने अंदर ही आत्मा को पा लेता है.”
अर्थ: इस श्लोक में एक गुरु में क्या गुण होने चाहिए और एक शिष्य का कैसा नज़रिया होना चाहिए इस बारे में बताया गया है. शिष्य को इन बातों का पालन करना चाहिए:
1. प्रणाम करना: गुरु को प्रणाम करना सिर्फ़ शारीरिक रूप से समर्पण नहीं दिखाता बल्कि ज्ञान हासिल करने के लिए उसकी विनम्रता, श्रद्धा और गुरु की आज्ञा का पालन करना भी दिखाता है.
2. सवाल पूछना: ज्ञान हासिल करने के दौरान अगर शिष्य को कुछ समझ ना आए या उसके मन में सवाल उठें तो उसे गुरु से सवाल ज़रूर पूछना चाहिए.
3. सेवा करना : यहाँ सेवा का मतलब है गुरु द्वारा दी गई सीख को जीवन में उतारना.
गुरु कहलाने के योग्य होने के लिए, एक गुरु को :
1. शास्त्रों का पूरा ज्ञान होना चाहिए
2. इसके साथ-साथ उसे अपने ख़ुद के अनुभव से मिले ज्ञान को भी शिष्यों को देना चाहिए
यहाँ श्रीकृष्ण कहना चाहते हैं कि सिर्फ़ शास्त्र पढ़ लेने से कोई गुरु कहलाने योग्य नहीं बन जाता. जब तक किसी मनुष्य ने उस परम तत्व को ख़ुद के अनुभव से महसूस ना किया हो वो शास्त्रों में लिखी बातों को कभी गहराई से नहीं समझ सकता. इस श्लोक में बताया गया है कि आध्यात्मिक जीवन में विश्वास पहले आता है, उसके बाद ज्ञान और फिर अनुभव आता है। ज्ञान हासिल करने के बाद मनुष्यात्मा समझ जाती है कि हर आत्मा परमात्मा की ही रचना है.
भगवद गीता में ये भी कहा गया है कि भले की कोई कितना भी बड़ा पापी और अधर्मी क्यों ना हो, वो आत्म ज्ञान से तब भी मुक्ति पा सकता है. पाप का मतलब है अपने दिव्य स्वभाव को भूलकर अहंकार में आकर गलत कर्म करना.
जिस तरह लकड़ी के टुकड़े आग में जलकर राख में बदल जाते हैं उसी तरह सभी कर्म, अच्छे या बुरे, ज्ञान की आग में जल जाते हैं। जब मनुष्य अपने आत्म भाव में टिक जाता है, तो उसके कर्म और उनके परिणाम मनुष्य को जन्म-मरण के चक्र में फँसने नहीं देते. जब पूर्ण आत्मज्ञान होता है तो कर्ता का कोई विचार नहीं होता और कर्मों के फल की इच्छा नहीं होती, तो ऐसे कर्म कर्म नहीं रह जाते क्योंकि वो अपनी सारी शक्ति खो देते हैं। कर्म impression के रूप में मनुष्य के मन में रिएक्शन छोड़ते हैं जो कर्मों के गुण के आधार पर अलग-अलग समय में फल के रूप में सामने आते हैं। इस तरह कर्म तीन प्रकार के होते हैं:
1. संचित कर्म- यानी मनुष्यात्मा ने अब तक जितने भी कर्म किए, अच्छे या बुरे और जिनका फल भविष्य में मिलेगा, जब उन सभी को इक्कट्ठा किया जाता है तो उसे संचित कर्म कहते हैं.
2. प्रारब्ध – जब संचित कर्म में कुछ कर्मों को वर्तमान जन्म में भोगने के लिए निकाला जाता है तो उसे प्रारब्ध कर्म कहते हैं यानी वो कर्म जिनका मनुष्य को अपने वर्तमान जीवन में सामना करना ही पड़ेगा.
3. क्रियामान कर्म - वर्तमान जीवन में किए गए कर्म, जिनका फल भविष्य में मिलेगा, उन्हें क्रियामान कर्म कहते हैं यानी वर्तमान जीवन में मनुष्यात्मा जो भी कर्म करती है उसे क्रियामान कहते हैं।
ज्ञान की अग्नि प्रारब्ध को छोड़कर, जो पहले से ही प्रभाव पैदा करना शुरू कर चुके हैं, किसी और कर्म का फल नहीं बनने देती।
मन को शुद्ध करने के लिए आत्म ज्ञान के बराबर कोई ज्ञान नहीं है। जिस मनुष्यात्मा ने कर्म योग और ध्यान (meditation) के लगातार अभ्यास से ये हासिल कर लिया उसकी मुक्ति निश्चित है.

श्लोक 11:

श्रीकृष्ण, “जो मनुष्य विश्वास से भरा है, जो इस दिव्य ज्ञान के लिए समर्पित है और जिसने सभी इंद्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को पाने का अधिकारी है; और ज्ञान प्राप्त करने के बाद वो उस परम शांति को प्राप्त करता है. जो अज्ञानी और श्रद्धारहित मनुष्य शास्त्रों में संदेह करता है वो भगवद भावना के अमृत को प्राप्त नहीं करते अपितु नीचे गिर जाते हैं.
संदेह करने वालों के लिए न तो इस लोक में ना परलोक में कोई सुख है. जो मनुष्य अपने कर्मों को परमात्मा को अर्पण करता है और जिसके संदेह दिव्य ज्ञान से नष्ट हो चुके ऐसे वश में किए हुए मन वाले मनुष्य को कर्म नहीं बांधते. इसलिए तुम्हारे मन में ज्ञान के कारण जो संदेह उठ रहे हैं उन्हें ज्ञान रुपी शास्त्र से काट डाल और कर्म योग की भावना में स्थित होकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा.”
अर्थ: अगर मनुष्यात्मा उस ऊँचाई पर पहुँचना चाहती है जहाँ उसे दिव्यता अनुभव हो सके तो उसमें विश्वास, भक्ति और आत्म-नियंत्रण तीन गुण होने चाहिए।
विश्वास: यह अंध विश्वास या किसी भी बात पर आँखें बंदकर या बिना सवाल उठाए विश्वास करना नहीं होता। विश्वास का मतलब है जिसके द्वारा मनुष्य शास्त्र में लिखी बातों के साथ-साथ गुरु या टीचर द्वारा सिखाई गई बातों को आसानी से समझ सके और जहाँ उसे कोई संशय या डाउट हो तो वो सवाल भी पूछे।
भक्ति: मनुष्य को भगवान् में विश्वास करते हुए पूरे समर्पण के साथ आत्म-विकास के लिए आगे बढ़ते रहना चाहिए.
आत्मनियंत्रण (self-control): मनुष्य की इन्द्रियाँ उसके मन में हलचल पैदा करती हैं और उसे पाप कर्म करने के लिए उकसाती हैं। इसलिए, मनुष्य को स्थिर रहकर लगातार आत्म-नियंत्रण (self-control) में रहना सीखना चाहिए।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिनके पास ये गुण नहीं हैं, वे अंत में खुद को नष्ट कर लेते हैं और पूरी तरह से बर्बाद हो जाते हैं। वह जिसे अपने असली स्वरुप यानी आत्मा का कोई ज्ञान नहीं है, जिसे शास्त्रों में, अपने गुरु की दी हुई सीख में कोई विश्वास नहीं है और जो संदेह करता है वो इस संदेह के कारण इस दुनिया का आनंद लेने में विफल हो जाता है. जो दूसरों के बारे में, उनके आस-पास की चीजों के बारे में, दूसरी दुनिया के बारे में अनगिनत संदेह रखते हैं, उन्हें कहीं भी खुशी नहीं मिलती - न इस लोक में और न ही परलोक में।
जो कर्म अहंकार और स्वार्थी इच्छाओं के लिए किए जाते हैं वो मनुष्यात्मा के चित्त में छाप (impression) छोड़ देते हैं और उन्हें उसके फल से बाँध देते हैं। जब कोई मनुष्य योग के माध्यम से अपने कर्मों के फल के लिए लगाव को त्यागना सीख जाता है और आत्म-ज्ञान से वो जीवन के लक्ष्य के बारे में जान जाता है तो वो यह महसूस करने लगता है कि वो आत्मा के अलावा और कुछ नहीं है। जब ऐसा मनुष्य परमात्मा को अपने सभी कर्म समर्पित कर देता है, तो उसके कर्म उसे बाँधते नहीं हैं।
श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान (knowledge) और एकाग्रता (concentration) की मदद से कर्म करने की सलाह देते हैं। यहाँ ज्ञान का मतलब वह ज्ञान है जिसके द्वारा मनुष्य शरीर और आत्मा के बीच के फ़र्क को समझ पाता है और जिसके परिणामस्वरूप दुःख और भ्रम का नाश होता है। अर्जुन के दिल में यह संदेह कि क्या लड़ना श्रेष्ठ है या युद्धभूमि से लौट जाना बेहतर है, अज्ञानता के कारण था और इसे सिर्फ़ ज्ञान द्वारा ही नष्ट किया जा सकता था। ये ज्ञान मिलने के बाद ही उन्हें समझ में आया कि क्या करना सही है।
हर मनुष्य को भी को त्याग की भावना से कर्म करने चाहिए जिससे उसका मन पवित्र होता है और तब वो परम शांति का अनुभव कर सकता है जो कि उसका अंतिम लक्ष्य है।

सीख : श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में मनुष्यात्मा को त्याग के बारे में बताया है यानी फल की इच्छा ना करने के साथ-साथ इसमें शरीर, मन और बुद्धि का समर्पण भी शामिल हैं। लेकिन वह इस बात पर जोर देते हैं कि ज्ञान मिलने के बाद किया गया त्याग संसार की चीज़ों के त्याग से कहीं ज़्यादा श्रेष्ठ होता है। भगवान अर्जुन को बताते हैं कि यह ज्ञान ईमानदारी, मन की शुद्धता, भक्ति के साथ भगवान और गुरु की सेवा, कर्म योग और लंबे समय तक आत्म नियंत्रण (सेल्फ कंट्रोल) के साथ पाया जा सकता है। असली ज्ञान आत्मा या consciousness को जानना है जो मनुष्य के अंदर होती है। ध्यान (मैडिटेशन) को लंबे समय तक करने के बाद के बाद ही मनुष्य उस आत्मा या शुद्ध चेतना को अनुभव कर सकता है। इसके लिए मनुष्य को ईश्वर पर अटूट विश्वास होना चाहिए, उसमें संयम और समर्पण होना चाहिए और दुनिया की चीज़ों के लिए इंद्रियों का जो लगाव है उसे हटाकर अपने अंदर उस आत्म भाव की ओर लगाना चाहिए । उसके बाद ही वो उस परम शांति को पा सकता है। अज्ञानी, समझ और ज्ञान की कमी के कारण ख़ुद के साथ-साथ दूसरों पर भी शक करते हैं और इस लोक के साथ साथ परलोक में भी सुख का आनंद नहीं ले पाते। लेकिन जो ज्ञान की समझ के साथ कर्म योग में टिककर कर्म करता है उसे दुनिया में किया गया कोई भी कर्म बाँध नहीं सकता।


Bhagavad Gita (Chapter 4)



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