Bhagavad Gita (Chapter 5) Hindi Summary

Bhagavad Gita (Chapter 5) Hindi Summary

By- GIGL

Bhagavad Gita (Chapter 5) Hindi Summary

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अध्याय 5 – कर्म संन्यास योग
ज्ञानयोग और कर्मयोग की एकता, सांख्य का विवरण और कर्मयोग की वरीयता

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अध्याय 5 – कर्म संन्यास योग
ज्ञानयोग और कर्मयोग की एकता, सांख्य का विवरण और कर्मयोग की वरीयता

श्लोक 1:

अर्जुन बोले, “हे माधव! आप कर्मों का त्याग यानी कर्म संन्यास लेने के लिए कह रहे हैं और साथ ही निष्काम कर्म योग का गुणगान भी कर रहे हैं. मुझे निश्चित रूप से बताएँ कि दोनों में से कौन सा श्रेष्ठ है”।

अर्थ: अर्जुन का ये सवाल दिखाता है कि वो अब भी दुविधा में थे और फ़ैसला नहीं कर पा रहे थे कि उनके लिए युद्ध करना सही है या युद्धभूमि से पीछे हट जाना. अध्याय IV के कई श्लोकों में भगवान ने कर्मों के प्रति लगाव को छोड़ने और उन्हें भगवान् को समर्पित करने की बात कही है और श्लोक 42 में उन्होंने अर्जुन को कर्म योग में टिककर अपना कर्म करने के लिए कहा है। अब ये दो इतनी अलग-अलग बातें हैं कि कर्मों का त्याग करना और कर्म योग में टिककर कर्म करना, मनुष्य एक ही समय में दोनों कैसे कर सकता है इसलिए अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा कि वो कौन सा एक रास्ता है जिस पर चलकर उनका कल्याण हो सकता है।

श्लोक 2:

श्रीकृष्ण ने कहा “कर्म संन्यास और कर्मयोग दोनों ही कल्याण की ओर ले जाते हैं; लेकिन दोनों में से कर्मयोग ज़्यादा श्रेष्ठ है। हे अर्जुन! जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी चीज़ की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी संन्यासी ही कहलाता है. भावनाएँ सदा जोड़े में आती हैं जैसे सुख-दुःख, हानि-लाभ, राग-द्वेष आदि, इसलिए इनसे मुक्त रहने वाला मनुष्य सुख से रहता है और संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है. केवल नासमझ ही ज्ञान योग और कर्म योग को अलग-अलग मानते हैं जबकि इनमें से किसी एक को भी जीवन में उतार लिया जाए तो वो मनुष्य को कल्याण की ओर ले जाता है.

ये दोनों ही योग मुक्ति देने वाले हैं. असल में जो मनुष्य इन दोनों को एक देखता है वही यथार्त को देख रहा है. लेकिन हे अर्जुन! कर्म योग के बिना कर्म संन्यास तक पहुँच पाना मुश्किल है क्योंकि इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले कर्मों में कर्ता के भाव का त्याग कर पाना इतना सरल नहीं है और भगवत्स्वरूप को मनन करने वाला कर्मयोगी जल्द ही परमात्मा को पा लेता है”.

अर्थ: कर्म संन्यास का मतलब है जब मनुष्यात्मा ये समझ जाए कि वो शरीर, इच्छाएँ, वासनाएँ आदि नहीं बल्कि आत्मा है और उस भाव में टिक जाए तो वो कर्म से ही ऊपर उठ जाता है और उसके बाद उससे जो कर्म होते हैं वो कर्म होते हुए भी उसे बाँध नहीं पाते. कर्म संन्यास में कर्म ही ख़त्म या dissolve हो जाते हैं यानी कर्म होकर भी वो कर्म नहीं रहते. इसमें मन में ये भाव जग जाता है कि इस ब्रह्मांड में सब कुछ परमात्मा है, मेरे सारे कर्म भी प्रकृति के तीन गुण करवा रहे हैं और मुझ अकेले का कोई अस्तित्व नहीं है.

कर्म संन्यास का मतलब ये नहीं है कि कर्म करना छोड़ देना है या घरबार छोड़कर संन्यास ले लेना है. नहीं, इसका मतलब ये है कि मनुष्य जब अपने आत्म भाव में ठहर जाता है तो उसके कर्म अपने आप ख़त्म होने लगते हैं. शरीर, मन, इंद्रियों, बुद्धि सभी के कर्म ख़त्म होने लगते हैं.

ज्ञान योग में जब मनुष्य अपने असली स्वरुप को जानकर अपने आत्म भाव में ठहर जाता है तो कर्म करने के लिए जो एनर्जी बाहर की ओर बहती है वो उसके अंदर की ओर जाने लगती है क्योंकि मन, बुद्धि सब अपने आत्म भाव में लीन हो जाते हैं, उससे जुड़ जाते हैं . इसलिए जब कर्म करने की ओर एनर्जी जा ही नहीं है तो कर्म बनेंगे कैसे? कर्म संन्यास अपने मन के अंदर की साधना है. ये संन्यास की साधना होती है समाज की नहीं.

दूसरी ओर, कर्म योग का मतलब है जहाँ कर्मों के फल ख़त्म हो जाते हैं यानी कर्म तो हो रहा है लेकिन निष्काम भाव से हो रहा है तो वो फल को जन्म नहीं देते. ऐसे कर्मों में ना फल पाने की कोई इच्छा होती है, ना उसका इंतज़ार होता है, ना कर्म से लगाव होता है और ना ही कर्ता भाव का अहंकार होता है. इसमें मनुष्य अपने कर्मों के फल का इंतज़ार या इच्छा नहीं करता.

इसमें कर्म करने के लिए एनर्जी बाहर की ओर बहती है इसलिए इसमें कर्म तो होते हैं लेकिन क्योंकि भावना निष्काम है इसलिए उसके फल नहीं बनते. इसे मनुष्य घर-गृहस्थी में रहते हुए भी कर सकता है यानी परिवार में रहते हुए, व्यापार करते हुए, अपनी हर ज़िम्मेदारी निभाते हुए इसे किया जा सकता है.

अब श्रीकृष्ण कहते हैं कि निष्काम कर्म योग यानी कर्म योग ज़्यादा श्रेष्ठ है. भगवान् यहाँ बता रहे हैं कि परिवार में रहते हुए भी ऐसे कर्म किए जा सकते हैं जो मनुष्य को उलझा नहीं सकते.

राग का मतलब है प्रेम या किसी चीज़ की ओर जाने के लिए खिंचाव महसूस होना. द्वेष का मतलब है घृणा या किसी चीज़ से दूर जाने की इच्छा होना. जो चीज़ मनुष्य को सुख देती है उससे उन्हें राग हो जाता है और जो चीज़ उन्हें दुःख देती है उससे उन्हें द्वेष हो जाता है. जब मनुष्य इन दोनों भावनाओं से आज़ाद हो जाता है और उसमें कुछ पाने की इच्छा नहीं होती उसे ऐसे मनुष्य को संयासी कहा जाता है.

इस श्लोक में ये भी बताया गया है कि ये दोनों योग दिखने में अलग-अलग लग सकते हैं लेकिन ये दोनों ही मनुष्य को एक ही जगह लेकर जाते हैं यानी दोनों ब्रह्म तक पहुँचाते हैं. इसका मतलब है कि रास्ते महत्त्व नहीं रखते बल्कि महत्त्व तो मंज़िल का होता है. इसलिए अगर मनुष्य इनमें से किसी भी रास्ते पर चलते हुए कर्म करेगा तो वो उसे ब्रह्म तक पहुँचा ही देंगे.

यथार्त का मतलब है जो जैसा है उसे वैसा देखना. जब तक मनुष्य, आत्मा के तत्व को समझेगा नहीं, उसमें ठहरेगा नहीं तब तक वो सच को कैसे देख पाएगा. मनुष्य तो अपनी मान्यताओं, कल्पना, अहंकार आदि के आधार पर दुनिया को देखता है इसलिए उसे अक्सर सच दिखाई नहीं देता, उसे वो दिखाई देता है जो वो देखना चाहता है.

इस श्लोक में भगवान् ये भी समझा रहे हैं कि निष्काम कर्म योग के बिना कर्म संन्यास को पा लेना काफ़ी मुश्किल है क्योंकि सिर्फ़ कर्मों को छोड़ देने से दुःख का जन्म होता है. दुःख के आने के बाद मन बेचैन रहने लगता है जिससे शरीर ख़राब होने लगता है और फ़िर बुद्धि काम करना बंद कर देती है. इसलिए सब कुछ छोड़कर बैठ जाना इस दुनिया में प्रैक्टिकल नहीं है. सब छोड़कर बैठ जाने से मनुष्य की स्किल ख़त्म होने लगती है.

निष्काम कर्म योग मतलब कर्म के फलों के लिए कोई इच्छा ना होना. इस तरह जब मन से फल की इच्छा ख़त्म होने लगे तो धीरे-धीरे कर्म भी ख़त्म होने लगते हैं. इसलिए निष्काम कर्म योग ही वो रास्ता है जिसके ज़रिए कर्म संन्यास पाया जा सकता है. कर्म योग ही धीरे-धीरे कर्म संन्यास बन जाता है. सच्चा संयासी वो नहीं होता जो कर्मों को छोड़कर बैठ जाए बल्कि वो होता है जो हर लगाव और इच्छा को छोड़कर कर्म करे.

सांख्य योगी और कर्म योगी के लक्षण और उनकी महिमा

श्लोक 3:

श्रीकृष्ण कहते हैं, “जिसका मन अपने वश में है, जिसने अपनी इंद्रियों को क़ाबू में कर लिया है, जिसका मन शुद्ध है, वो अपनी आत्मा को सब जीवों की आत्मा में देखने वाला निष्काम कर्म योगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता. अपने स्वरुप से जुड़ा हुआ तत्व ज्ञानी, तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और बंद करता हुआ भी, बिना कोई संशय किए ये मानें कि सब इन्द्रियाँ अपना-अपना काम कर रही हैं- और मैं कुछ भी नहीं करता हूँ.

जो मनुष्य सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह मनुष्य जल में कमल के पत्ते की तरह पाप से लिप्त नहीं होता. कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके परम शान्ति को प्राप्त करता है और सकाम कर्म करने वाला मनुष्य इच्छा और फल की कामना में आसक्त होकर बँध जाता है.”

अर्थ: इस श्लोक में भगवान् कहते हैं कि मनुष्य अपने मन के वश में हो जाता है और वही करने लगता है जो मन कहता है चाहे वो सही हो या गलत. इस तरह मन की बातें मानते मानते वो मन का ग़ुलाम बन जाता है. योगी तो वो होता है जो मन की ना सुने बल्कि उसकी सुने जो विवेक और बुद्धि से आते हैं और वही कर्म करे. ये भटकता हुआ मन ही तो मनुष्य को बाँध रहा है. इसलिए मन से कंट्रोल नहीं होना है बल्कि मन को कंट्रोल करना है.

जब मनुष्य अपने मन को वश में कर लेता है तो उसकी सभी इंद्रियों अपने आप उसके वश में आ जाती हैं. जब इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं तो मनुष्य की भावना शुद्ध हो जाती है. जब मनुष्य की कोई इच्छा या वासना -दौलत, शोहरत, किसी शरीर को भोगने की इच्छा की ओर जाती है तो वो ख़ुद को अशुद्ध कर लेता है. दया, हमदर्दी, समर्पण, प्रार्थना वो भाव हैं जो मन को शुद्ध करते हैं.

जब मन साफ़ हो जाता है तो बाहर भी सिर्फ़ अच्छाई ही दिखने लगती है. ऐसा मनुशु सब जीवों में उस पवित्र आत्मा को देखने लगता है, वो समझ जाता है कि वो जीव भी उस परम आत्मा का ही अंश है इसलिए उससे पाप कर्म होने बंद हो जाते हैं.

“अपने स्वरुप को समझने वाला तत्व ज्ञानी” का मतलब है जिसने उस एक तत्व, परम आत्मा के तत्व को समझ लिया है और उससे जुड़ गया है, जो ये समझ गया है कि वो एक ही तत्व है जो उसके अंदर भी है और बाहर भी. पूरा ब्रह्मांड, सृष्टि, प्रकृति, प्रकृति के पाँचों तत्व उसी से आए हैं. ऐसा मनुष्य उस एक तत्व, जो सभी चीज़ों का आधार (foundation) है, मान लेता है कि उसके अंदर और बाहर हर जगह वो ही तो है. ऐसा मनुष्य हर जगह एक यानी एकता देखने लगता है, उसके मन से भेदभाव का भाव ही ख़त्म हो जाता है. भेदभाव तो वहां होता है जहाँ एक से ज़्यादा चीज़ें मौजूद हों लेकिन ऐसा मनुष्य हर जगह उस एक तत्व को ही देखने लगता है.

इसलिए जब उसकी इंद्रियां देखती हैं, सुनती हैं आदि तो वो ख़ुद को देखने वाला, सुनने वाला माध्यम मानता है, ये नहीं मानता कि मैं सुन रहा हूँ, देख रहा हूँ. ये सब देखते सुनते हुए भी उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. वो जान लेता है कि इन्द्रियाँ अपना काम कर रही हैं, वो ख़ुद कुछ नहीं कर रहा. इस तरह उसका कर्ता भाव ख़त्म हो जाता है जिस कारण कर्म फल नहीं बनता और ऐसी अवस्था ही मुक्ति की अवस्था कहलाती है.

जैसे कमल कीचड़ में खिलता है लेकिन उसके नीचे के कीचड़ का असर कमल पर नहीं होता, वो तो कीचड़ से उठकर अपनी पूरी सुंदरता के साथ खिला रहता है. यहाँ कीचड़ का मतलब है पाप कर्म और कमल का मतलब है मनुष्य. इसी तरह जब मनुष्य निष्काम कर्म में लग जाता है तो पाप उसे छू भी नहीं सकते क्योंकि वो तो पाप-पुण्य, हानि-लाभ से ही ऊपर उठ जाता है.

कर्म योगी सुकून और शांति से जीवन जीता है क्योंकि उसके मन में फल की चाहत नहीं होती. जब मन में फल पाने की इच्छा या चिंता होती है तो वो मन की शांति को खा जाती है क्योंकि मनुष्य फल के इंतज़ार में ही बैठा रहता है.

ज्ञान योग का विषय

श्लोक 4:

श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, “अपनी प्रकृति को वश में कर जो मनुष्य सभी कर्मों का त्याग कर देता है, वह न कर्म करता है और ना करवाता है और नौ द्वारों वाले शरीर में सुख से रहता है. परमात्मा ना तो मनुष्यों के कर्तापन को, ना कर्मों को और ना ही कर्म फल को रचते हैं बल्कि मनुष्य अपने स्वभाव से कर्म करते हैं.

परमात्मा किसी के पाप या पुण्य को ग्रहण नहीं करते बल्कि अज्ञान के कारण जो ज्ञान ढक जाता है मनुष्य उससे भ्रमित हो जाता है. जिनका अज्ञान आत्म ज्ञान को जानकर नष्ट हो गया है, उनका ज्ञान सूर्य की तरह उस परब्रह्म को प्रकाशित कर देता है.”

अर्थ: जब मनुष्य अपने मन को, इंद्रियों और बुद्धि को अपने वश में कर लेता है, अकर्ता भाव में इनका मालिक बन जाता है तब वो ख़ुद न कर्म करता है और ना कोई कर्म करवाता है. वो जानता है कि उसके अंदर प्रकृति के तीन गुण उससे कर्म करवा रहे हैं. वो तो बस उन्हें होता हुआ देखता है. वो ख़ुद को शरीर नहीं मानता. वो ख़ुद को आत्मा पहचान लेता है जो नौ दरवाज़े या रास्तों वाले इस शरीर में रहती है.

मनुष्य के शरीर में नौ द्वार होते हैं जो हैं - दो आँखें, दो कान, दो नाक के छेद, एक मुहँ और दो मल मूत्र त्याग करने के द्वार. जब मन मैं और अहंकार से हटकर परम आत्मा से जुड़ जाता है तब जीवन में सुख आ जाता है.

इस श्लोक में ये भी बताया गया है कि परमात्मा किसी जीव के पाप पुण्य या उसके कर्मों और उनके फलों को ना तो ग्रहण करते हैं और उनके बीच में आते हैं. मनुष्य ख़ुद उसका जैसा स्वभाव होता है वो वैसा ही कर्म करता है. उसके कर्मों के फल अपने आप बनते हैं और वो फल कब मिलेगा, कैसे मिलेगा, किसके ज़रिए मिलेगा ये कहा नहीं जा सकता.

जब मनुष्य कर्म करता है तो उसकी एनर्जी फील्ड में उसके impression आ जाते हैं, वही धीरे-धीरे फल के रूप में मनुष्य के जीवन में सामने आते हैं. कर्म में कर्तापन का भाव भी मनुष्य ख़ुद ही पैदा करता है.

परमात्मा किसी से कुछ लेते नहीं. परमात्मा तो निराकार और शुद्ध हैं इसलिए इस साकार शरीर से जो कर्म किए जाते हैं वो वहाँ तक पहुँच नहीं सकते. इसलिए हमारे कर्मों में परमात्मा की कोई भूमिका नहीं होती. निष्काम कर्म ही वो माध्यम है जिसके ज़रिए मनुष्य परमात्मा तक पहुँच सकता है. पाप-पुण्य, शुभ-असुभ कर्म सकाम कर्म होते हैं यानी ऐसे कर्म जिसमें कर्ता का भाव भी होता है और फल पाने की इच्छा भी.

सकाम कर्म मनुष्य को कभी परमात्मा तक नहीं पहुँचा सकते क्योंकि जब कर्म में कामना आ जाती है तो वो शुद्ध नहीं रह जाते, उसके फल बनते हैं जिसे भोगने के लिए मनुष्य को फ़िर से जन्म लेना पड़ता है. अज्ञानता आत्मा के शुद्ध ज्ञान को ढक देती है और मनुष्य अपने गुणों और इंद्रियों के प्रभाव में आकर गलत कर्म करने लगता है.

अज्ञानता से अहंकार का जन्म होता है जो मनुष्य के मन, बुद्धि पर हावी हो जाता है और ये सभी दुखों का कारण बनता है. जिस तरह बादल के छंट जाने के बाद सूर्य की रौशनी में सब कुछ साफ़-साफ़ दिखाई देने लगता है उसी तरह आत्म ज्ञान के बाद अज्ञानता का नाश हो जाता है जिससे अहंकार ख़त्म होता है. ज्ञान का मतलब है ख़ुद के असली स्वरुप को जानना कि मैं मनुष्य नहीं बल्कि आत्मा हूँ.

ज्ञान बाहर से नहीं आता बल्कि वो तो पहले से ही मनुष्य के अंदर होता है, ज़रुरत है उसे याद और अनुभव करने की, जिसे शरीर धारण करने के बाद आत्मा भूल जाती है. आत्म ज्ञान का मतलब है जो मनुष्य भूल गया था उसे याद आ जाना.

ज्ञान हो जाने के बाद जीवन जीने का तरीका ही बदल जाता है क्योंकि जब मनुष्य अपनी आत्मा के साथ जुड़ जाता है तो वो उसकी आवाज़ सुनने लगता है, जो पहले मन में चल रहे शोर के कारण वो सुन नहीं पा रहा था. ये आवाज़ उसे सही रास्ते दिखाती है, सही कर्म करने के लिए प्रेरित करती है जिससे उसके पाप कर्म कम होने लगते हैं और वो शुद्धि और मुक्ति की ओर बढ़ने लगता है.

श्लोक 5:

श्रीकृष्ण, “ जिसका मन और बुद्धि तद्रूप हो गई है, वो जिसकी परमात्मा में निष्ठा है ऐसे तत्परायण मनुष्य पाप रहित होकर परम गति को प्राप्त होते हैं. वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में, गाय, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते हैं. जिनका मन सम भाव में स्थित है वो जीते जी ही संसार को जीत लेते हैं क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है इसलिए वो ब्रह्म में ही स्थित हैं. जो प्रिय को प्राप्त कर ख़ुश ना हो और अप्रिय को प्राप्त कर बेचैन ना हो ऐसा स्थिर बुद्धि, संशय रहित, ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्म में ही स्थित है.”

अर्थ: इस श्लोक में तद्रूप का मतलब है “वैसा ही हो जाना” यानी मन में जैसे विचार होते हैं मन वैसा ही आकार और रूप ले लेता है. मन बिलकुल पानी की तरह होता है जिसका कोई आकार, कोई रंग नहीं होता. अगर मन में अच्छे विचार ले आओ तो मन अच्छा हो जाएगा और अगर बुरे विचार लाओ तो बुरा हो जाएगा. मन का अपना कोई आकार नहीं होता, जो भी ख़याल उसमें आता है वो उसी आकार में ढल जाता है.

बुद्धि भी बिलकुल ऐसी ही होती है. जब ज्ञान का उदय होता है तो वो मनुष्य को ब्रह्म का ज्ञान करा देती है जिससे ब्रह्म में उसकी निष्ठा और विश्वास जाग जाती है. इसका मतलब है इस ज्ञान के अनुभव के बाद मनुष्य हर वक़्त लगातार ब्रह्म का अनुभव करता रहता है. वो अनुभव होने के बाद मन और बुद्धि भी उसके समान हो जाते हैं और तब मन और बुद्धि में परमात्मा बस जाते हैं.

उसके बाद ऐसे मनुष्य को और कुछ दिखाई नहीं देता. उसे चारों ओर बस उस ब्रह्म के ही दर्शन होते हैं यानी उसके बाद उनके अंदर सम भाव पैदा हो जाएगा. वो जहाँ भी देखेगा, जिसे भी देखेगा एक भाव से देखेगा, उसे कहीं कोई भेदभाव नहीं दिखेगा. उसे सब में परमात्मा का अंश आत्मा ही दिखाई देगी.

जो मनुष्य लगातार अपने आप को परमात्मा के भाव में लगाए रखते हैं उनके चित्त में पड़े हुए संस्कार, कर्म आदि सब ज्ञान की अग्नि में जल जाते हैं. ऐसा मनुष्य परम गति को पाता है यानी उसे ऐसी गति मिलती है जहाँ से वो लौटकर नहीं आता, इसी को मुक्ति कहते हैं. ये अवस्था जीते जी पाई जा सकती है, ऐसा नहीं है कि मरने के बाद ही ऐसा होता है.

जो मनुष्य सम भाव में टिक जाता है वो अपने मन, इंद्रियों, इच्छाओं को वश में कर लेता है और इस तरह वो जीते जी पूरा संसार जीत लेता है. जब वो संसार को जीत लेता है तो संसार उसे बाँध नहीं पाती बल्कि मुक्ति का कारण बन जाती है. तब संसार की माया उस पर कोई असर नहीं कर पाती. जब मन पूरी तरह ब्रह्म में टिक जाता है तो मन में कोई दोष या विकार नहीं रह जाता क्योंकि ब्रह्म में कोई दोष नहीं होता. ऐसे मनुष्य को हर जगह ब्रह्म ही दिखाई देने लगते हैं.

जब मनुष्य आत्म भाव में टिक जाता है उसमें समानता का भाव आ जाता है, उसके मन में कोई संशय नहीं होता यानी उसे हर चीज़ की clarity मिल जाती है. तब वो किसी भी परिस्थिति में बेचैन नहीं होता. जब मन में संशय यानी डाउट ना हो तो मन स्थिर यानी बैलेंस्ड हो जाता है. ऐसा मनुष्य ना अपने पसंद की चीज़ मिलने से ख़ुश होता है और न ही कोई नापसंद चीज़ होने से निराश होता है। इसका मतलब यह नहीं है कि उसका कोई रिएक्शन नहीं आता, बल्कि इसका मतलब ये है कि वह हमेशा बैलेंस्ड स्टेट ऑफ़ माइंड में रहता है जिसे कोई भी चीज़ या परिस्थिति आसानी से बिखर नहीं सकती।

श्लोक 6:

श्रीकृष्ण, “इन इंद्रियों और विषयों के संयोग से जन्म लेने वाले भोग जो मनुष्यों को अच्छे लगते हैं , वो दुःख का कारण बनते हैं और आदि अंत वाले हैं इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान मनुष्य उनमें नहीं रमता. जो मनुष्य इस शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले ही काम-क्रोध से जन्म लेने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही मनुष्य योगी और सुखी है.

जिनके सब पाप नष्ट हो गए हैं, जिनके सब संशय ज्ञान द्वारा ख़त्म हो गए हैं, जो हर जीव के हित में लगा हुआ हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चल भाव से परमात्मा में स्थित है, ऐसे मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होते हैं.”

अर्थ: जब मनुष्य की इंद्रियों बाहरी विषयों मतलब बाहर के किसी ऑब्जेक्ट के संपर्क में आती है तो वो उसे ये सोचकर पाना चाहती है कि वो उसे सुख देंगी. लेकिन असल में वही दुःख का कारण बनते हैं. जीवन में यही होता है जिस-जिस चीज़ से मनुष्य को सुख मिलता है, दुःख भी उसे उसी चीज़ से मिलता है और ये अंतहीन सिलसिला होता है.

मनुष्य बाहरी और नाशवान चीज़ों के बीच खुशी की तलाश में जाता है। वह उनमें कोई स्थायी (परमानेंट) खुशी नहीं पा सकता। इसलिए, इंद्रियों को विषयों यानी ऑब्जेक्ट से हटा देना चाहिए क्योंकि ये मनुष्य को स्थायी सुख और आनंद कभी नहीं दे सकते।

मनुष्य को अपने अंदर उस आत्म भाव में मन लगाना चाहिए जो उसे परम आनंद अनुभव कराती है। मन को जो चीज़ें अच्छी लगती हैं उनका भी आरंभ और अंत होता है इसलिए उनसे मिलने वाली ख़ुशी कुछ पलों की ही होती है. लेकिन जो मनुष्य अपने आत्म भाव से जुड़ जाता है वह लोगों में या संसार की चीज़ों में कभी भी ख़ुशी नहीं तलाशता.

इच्छा (वासना) और क्रोध शांति के दुश्मन होते हैं इसलिए उनका नाश करना बेहद ज़रूरी है। इन दुश्मनों का नाश करने के लिए बहुत कोशिश करनी पड़ती है। इसलिए कहते हैं कि जिस मनुष्य ने इच्छा और क्रोध को क़ाबू में कर लिया वह दुनिया का सबसे खुश रहने वाला आदमी बन जाता है।

इच्छा का मतलब है उस चीज़ के लिए तरसना जो देखने, सुनने या याद रखने पर ख़ुशी देती है। क्रोध वह भावना है, जब मनचाही चीज़ों को हासिल करने के रास्ते में मुश्किलें आती हैं। किसी भी चीज़ को पाने की जितनी ज़्यादा चाहत होगी, वो ना मिलने पर गुस्सा भी उतना ही ज़्यादा होगा। इस इच्छा और क्रोध का शरीर पर बहुत बुरा और गहरा असर होता है।

एक योगी वह होता है जो इच्छा और क्रोध के आवेगों (impulse) को नियंत्रित कर लेता है, पसंद और नापसंद को नष्ट कर देता है और अपने आत्म भाव में सुख अनुभव करता है। वह हमेशा खुश रहता है क्योंकि उसमें न तो इच्छा बाकी होती है और न किसी चीज़ के प्रति घृणा। श्रीकृष्ण कहते हैं कि अगर कोई इच्छा और क्रोध के बवंडर को क़ाबू में करना सीख जाए तो वो जीते जी पूरी तरह से खुश हो सकता है।

श्लोक 7:

श्रीकृष्ण, “शब्द आदि बाहरी विषयों को बाहर ही रोककर नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके और नासिका में चलने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके इंद्रियों, मन और बुद्धि को वश में कर मोक्ष परायण मुनि (परमेश्वर के स्वरूप का निरन्तर मनन करने वाला, वह सदा मुक्त ही है. जो मुझको सब यज्ञ और तपों का भोगने वाला, सभी लोकों के ईश्वर का भी ईश्वर तथा सभी भूत-प्राणियों का स्वार्थ रहित दयालु और प्रेमी जानता है वो शान्ति को प्राप्त होता है.”

अर्थ: इस श्लोक में भगवान् बता रहे हैं कि ध्यान (meditation) कैसे करना है. ध्यान करने से पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छा, डर और क्रोध से मुक्त करना होगा. उसके लिए मनुष्य को अपने अंदर के साथ जुड़ना होगा जो सिर्फ़ ध्यान के माध्यम से किया जा सकता है.

बाहरी चीज़ें अपने आप मनुष्य को बेचैन नहीं कर सकती. ये तो तब होता है जब इंद्रियों के माध्यम से मन,शरीर और बुद्धि उनके संपर्क में आता है. लेकिन अगर मनुष्य मन से इन्हें कंट्रोल कर ले तो ध्यान के लिए जिस सुकून और शांति की ज़रुरत है वो उसे अपने अंदर महसूस करने लगता है.

ध्यान करने के लिए आँखों को दोनों भौहों के बीच में टिकाना है यानी फोकस करना है. फोकस करते ही पूरी एनर्जी इकट्ठी हो जाती है और बढ़ने लगती है. उसके बाद नाक से जो साँस बह रही है यानी साँस अंदर लेना और बाहर छोड़ना उस पर फोकस करना है. साँस लेना प्राण होता है और बाहर निकल जाना अपाण होता है.

ये प्रक्रिया हमारे मन को सम कर देती है. इससे हमारे साँस में एक लय यानी rhythme पैदा होता है यानी कभी साँस का भारी होना, कभी हल्का होना, तेज़ होना, कभी टूटकर आना. इससे मन शांत होने लगता है और साँस सम होने लगती है. इससे इच्छा, डर, बेचैनी सब शांत होते चले जाते हैं. इसलिए ध्यान (meditation) की प्रैक्टिस करने से अंदर एक ठहराव आना शुरू हो जाता है.

भगवान् ये भी बता रहे रहे हैं कि मनुष्य के सारे कर्म इस ब्रह्मांड में होते हैं, इससे अलग होकर वो कुछ नहीं कर सकता. भगवान् कह रहे हैं कि वो ब्रह्मांड में हर जगह समाए हुए हैं. इसलिए जो मनुष्य उन्हें सब जगह अनुभव करता है और ये जान लेता है कि परमात्मा से अलग यहाँ कुछ भी नहीं है यानी सब कुछ परमात्मा में ही है, जो इश्वर का भी इश्वर है यानी वो विराट निराकार है, वो उसे जान जाता है वो शांति को प्राप्त होता है.

ऐसा मनुष्य ख़ुद को पानी की बूँद और परमात्मा को सागर समझता है. उसके बाद उसके अंदर मैं की भावना ख़त्म हो जाती है क्योंकि अब मैं अलग से रहा ही नहीं बल्कि उसके अंदर और बाहर वो एक तत्व परम पिता परमात्मा ही तो हैं. जिस पल ये भाव मनुष्य के अंदर जागता है वो उसी पल शांत हो जाता है.

सीख – ये अध्याय हमें सिखाती है कि हमें कर्मों को नहीं छोड़ना है बल्कि पूरी निष्ठा के साथ बिना किसी लगाव और फल का इंतज़ार किए हुए अपना कर्म करते जाना है. जब कर्म में कर्ता का भाव ना हो तो अहंकार ख़त्म हो जाता है जिससे मन शुद्ध होने लगता है. शुद्ध मन ज्ञान आसानी से ग्रहण कर सकता है. सिर्फ़ ज्ञान ही वो माध्यम है जिसके ज़रिए हम पाप कर्म करने से बच सकते हैं.

जब आत्म ज्ञान का दीपक जलता है तो हम अपने आसपास के लोगों को शरीर ना समझकर आत्मा के रूप में देखने लगते हैं, जो हमारे अंदर भी वास करती है. इस बात की समझ आ जाना कि ये आत्मा उस परम आत्मा का ही अंश है हमें दूसरों को दुःख और तकलीफ़ पहुँचाने से बचाती है. निष्काम भाव से किए गए कर्मों से जब उनके फल और उसके परिणामस्वरूप अंत में कर्म बनना बंद हो जाएँगे तब ही हम जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो पाएँगे.

अपने आत्म भाव को अनुभव करने के लिए भगवान् ने ध्यान यानी मैडिटेशन का प्रोसेस भी समझाया है. लंबे समय तक ध्यान करने से मन शुद्ध भी होता है और उसमें ठहराव भी आता है. इसलिए ध्यान की प्रक्रिया को जब आप शुरू करें तो इस संकल्प के साथ करें कि इसे लंबे समय तक करना होगा लेकिन इसके परिणाम देखकर आप ख़ुद चकित रह जाएँगे.


Bhagavad Gita (Chapter 5)



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